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स्वामी विरचित
आचार्य कुन्दकुन्द
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अब श्रावकों को कहते हैं सो सुनो। कैसा कहते हैं-संसार का तो विनाश करने वाला और सिद्धि जो मोक्ष उसको करने का उत्क ष्ट कारण-ऐसा उपदेश कहते हैं।
भावार्थ पहिले जो उपदेश कहा वह तो मुनियों को कहा और अब आगे जो कहते हैं वह श्रावकों को कहते हैं, ऐसा कहते हैं जिससे संसार का विनाश हो और मोक्ष की प्राप्ति हो।।8५।।
उत्थानिका आगे श्रावकों को प्रथम क्या करना सो कहते हैं :गहिऊण य सम्मत्तं सुणिम्मलं सुरगिरीव णिक्पं । तं झाणे झाइज्जइ सावय दुक्खक्खयट्टाए।। 8६।। ग्रहकर सुनिर्मल अरु अचल, सुरगिरी सम सम्यक्त्व को। हे श्रावकों ! दुःख क्षय के अर्थि, ध्यान में ध्याना उसे ।।8६ ।।
अर्थ प्रथम तो श्रावकों को 'सुनिर्मल' अर्थात भली प्रकार अतिचार रहित निर्मल और मेरुवत् निःकंप एवं चल तथा अगाढ़ दूषण रहित अत्यंत निश्चल-ऐसे सम्यक्त्व को ग्रहण करके उसको ध्यान में ध्याना। किसलिए ध्याना-दुःखों का क्षय करने के लिए ध्याना।
भावार्थ श्रावक पहिले तो निरतिचार निश्चल सम्यक्त्व को ग्रहण करके उसका ध्यान करे। इस सम्यक्त्व की भावना से ग हस्थ के ग हकार्य संबंधी जो आकुलता, क्षोभ और दुःख होता है वह मिट जाता है, कार्य के बिगड़ने-सुधरने में वस्तु के स्वरूप का विचार आता है तब दुःख मिटता है। सम्यग्द ष्टि के ऐसा विचार होता है कि 'वस्तु का स्वरूप सर्वज्ञ ने जैसा जाना है वैसा निरन्तर परिणमता है सो होता 業坊崇崇明崇明藥業、 WE६-७४)
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