________________
अष्ट ।
पाहड़NETWEE
site-
स्वामी विरचित
N
आचाय कुन्दकुन्द
A
पुरिसायारो अप्पा जोई वरणाणदंसणसमग्गो। जो झायदि सो जोई पावहरो हवदि णिइंदा।। 8४।। वर ज्ञान दर्शन पूर्ण, पुरुषाकार, योगी आत्मा। ध्याता उसे जो योगी, होता पापहर, निर्द्वन्द वह ।।8४ ।।
अर्थ
添添添添添馬樂樂男崇崇崇勇樂樂事業禁勇攀牙樂事業
यह आत्मा ध्यान के योग्य कैसा है-१. 'पुरुषाकार' है, २. 'योगी' है-मन, वचन, काय के योगों का जिसके निरोध है, सर्वांग निश्चल है और ३. 'वर' अर्थात् श्रेष्ठ सम्यक रूप ज्ञान तथा दर्शन से समग्र है-परिपूर्ण है, केवलज्ञानदर्शन जिसके पाया जाता है-ऐसे आत्मा का जो योगी-ध्यानी मुनि ध्यान करता है वह मुनि पाप को हरने वाला है और 'निर्द्वन्द्व है-रागद्वेष आदि विकल्पों से रहित है।
भावार्थ जो अरहतस्वरूप शुद्ध आत्मा का ध्यान करता है उसके पूर्व कर्म का नाश होता है और वर्तमान में राग-द्वेष से वह रहित होता है तब आगामी कर्म को नहीं बाँधता है।।8४।।
柴柴先崇崇崇崇崇乐業業先崇崇勇禁藥業樂業業崇勇
आगे कहते हैं कि 'ऐसा तो मुनियों को प्रवर्तन के लिए कहा, अब श्रावकों को
प्रवर्तने के लिए कहते हैं :एवं जिणेहिं कहियं सवणाणं सावयाण पुण सुणसु। संसारविणासयरं सिद्धियरं कारणं परमं ।। 8५।। पूर्वोक्त जिन उपदेश मुनि को, श्रावकों को अब कहें। वह भवविनाशक, सिद्धि का, कारण परम उसको सुनो।।8५।।
अर्थ
‘एवं' अर्थात् पूर्वोक्त प्रकार तो उपदेश श्रमण जो मुनि उनको जिनदेव ने कहा है।
养業崇崇明崇勇崇明業
६-७३) 《戀戀紫禁禁禁藥