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________________ 華卐卐糕卐業業卐業業卐業卐業卐卐卐 आचार्य कुन्दकुन्द * अष्ट पाहुड़ स्वामी विरचित णिच्छयणयस्स एवं अप्पा अप्पम्मि अप्पणे सुरदो । सो होदि हु सुचरित्तो जोई सो लहइ णिव्वाणं ।। 8३ । । परमार्थनय से आतमा, आत्मार्थ आत्मा में हो रत । सम्यक् चरित से युक्त होकर, योगी वह मुक्ति लहे । । 8३ । । अर्थ आचार्य कहते हैं कि 'निश्चयनय का ऐसा अभिप्राय है कि आत्मा, आत्मा ही में, अपने ही लिये भली प्रकार से रत हो- लीन हो सो योगी-ध्यानी मुनि सम्यक् चारित्रवान होता हुआ निर्वाण को पाता है ।' भावार्थ निश्चयनय का स्वरूप ऐसा है कि एक द्रव्य की अवस्था जैसी हो उसी को कहता है सो आत्मा की दो अवस्थायें हैं- एक तो अज्ञान अवस्था और एक ज्ञान अवस्था । १. जब तक अज्ञान रहता है तब तक तो बंध पर्याय को आत्मा जानता है कि 'मैं मनुष्य हूँ, मैं पशु हूँ; मैं क्रोधी हूँ, मैं मानी हूँ, मैं मायावी हूँ, मैं लोभी हूँ; मैं पुण्यवान-धनवान हूँ, मैं निर्धन-दरिद्री हूँ मैं राजा हूँ, मैं रंक हूँ तथा मैं मुनि हूँ, मैं श्रावक हूँ इत्यादि पर्यायों में अपनापना मानता है और उन पर्यायों में लीन रहता है तब मिथ्याद ष्टि है - अज्ञानी है, इसका फल संसार है उसको भोगता है।' २. जब जिनमत के प्रसाद से जीव- अजीव पदार्थों का ज्ञान होता है तब स्व-पर का भेद जानकर ज्ञानी होता है और तब ऐसा जानता है कि 'मै आत्मा शुद्ध ज्ञानदर्शनमयी चेतनास्वरूप हूँ, अन्य मेरा कुछ भी नहीं है।' जब भावलिंगी निर्ग्रथ मुनिपद की प्राप्ति करता है तब यह आत्मा आत्मा ही में, अपने ही द्वारा तथा अपने ही लिये विशेष लीन होता है तब निश्चय सम्यक् चारित्र स्वरूप होकर अपना ही ध्यान करता है तब सम्यग्ज्ञानी है जिसका फल निर्वाण है-ऐसा जानना ।। 8३ ।। उत्थानिका आगे इस ही अर्थ को द ढ़ करते हुए कहते हैं : ६-७२ 卐卐卐] 縢縢縢糕糕糕糕≡ ≡糕糕糕糕糕 縢糕糕 卐糕糕卐業卐
SR No.009483
Book TitleAstapahud
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaychand Chhabda, Kundalata Jain, Abha Jain
PublisherShailendra Piyushi Jain
Publication Year
Total Pages638
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size151 MB
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