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________________ अष्ट पाहड स्वामी विरचित आचाय कुन्दकुन्द ...... १४४ E/BOOK 添添添添添添樂業%崇崇崇崇勇涉兼崇勇攀事業事業 देवगुरूणं भत्ता णिव्वेयपरंपरा विचिंतता। झाणरया सुचरित्ता ते गहिया मोक्खमग्गम्मि।। 8२।। जो देव-गुरु के भक्त एवं ध्यानरत सुचरित्र हैं। चिन्तें विराग परम्परा, वे मोक्षमग में ग्रहीत हैं।।8२।। अर्थ जो मुनि १. देव और गुरुओं के भक्त हैं, २. 'निर्वेद' अर्थात् संसार-देह-भोगों से जो वैराग्य उसकी परम्परा का चिन्तवन करते हैं, ३. ध्यान में रत हैं-रक्त हैं, तत्पर हैं और ४. भला है चारित्र जिनके वे मोक्षमार्ग में ग्रहण किये गये हैं। भावार्थ १. जिनसे मोक्षमार्ग पाया ऐसे अरहंत सर्वज्ञ वीतराग जिनदेव और उनका अनुसरण करने वाले जो बड़े मुनि अर्थात् दीक्षा-शिक्षा को देनेवाले गुरु-उनकी तो भक्तियुक्त हैं, २. संसार-देह-भोगों से विरक्त होकर मुनि हए वैसे ही परम्परा से जिनके निरन्तर वैराग्य भावना है, ३. आत्मा का अनुभवरूप जो शुद्ध उपयोग रूप एकाग्रता वह ही हुआ ध्यान उसमें जो तत्पर हैं और ४. जिनके व्रत, समिति एवं गुप्ति रूप निश्चय-व्यवहारात्मक सम्यक् चारित्र पाया जाता है वे ही मुनि मोक्षमार्गी हैं, अन्य वेषी मोक्षमार्गी नहीं हैं।।18२।। राउत्थानिका] 崇先生崇崇崇崇崇崇崇崇崇勇崇勇崇勇崇勇兼業助業%崇明 आगे निश्चयनय से ध्यान इस प्रकार करना-ऐसा कहते हैं : टिO-1. श्रु0 टी0' में इस गाथा का विलेषण करते हुए लिखा है कि जो अठारह दोष रहित, संसार समुद्र से पार करने वाले, भव्य रूपी कमलों को विकसित करने के लिए सूर्य समान इत्यादि अनन्त गुणों से गरिष्ठ अर्हन्त देव के एवं समुद्र के पारगामी, सम्यग्दनि-ज्ञान-चारिक से पवित्र रीर, भव्य जीवों के सम्बोधन करने में माता-पिता के समान हित का उपदे देने वाले, पाप समूह को ग्रहण नहीं करने वाले इत्यादि गुणों के समूह से श्रेष्ठ तथा जगत के लिए इष्ट गुरुओं के भक्त हैं-उनके चरण कमलों में भ्रमर बनकर रहते हैं तथा जो नरकादि गर्त में गिराने वाले पापों से भयभीत मूर्ति हैं एवं भन जिनके आचार हैं वे भव्यवरपुण्डरीक मोक्षमार्ग में अगीकृत किए गए हैं।" 兼業助業崇明藥業業、崇崇崇崇崇崇明
SR No.009483
Book TitleAstapahud
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaychand Chhabda, Kundalata Jain, Abha Jain
PublisherShailendra Piyushi Jain
Publication Year
Total Pages638
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size151 MB
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