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________________ पाहुड़ re-EVEL अष्ट पाहड rotato स्वामी विरचित आचार्य कुन्दकुन्द ADOG/R HDoor e HDool /bore 添添添添添添樂業%崇崇崇崇勇涉兼崇勇攀事業事業 आगे फिर मोक्षमार्गी की प्रव त्ति कहते हैं :उद्धद्धमज्झलोए केई मज्झं ण अहयमेगागी। इय भावणाए जोई पावति हु सासयं सोक्खं ।। 8१।। पूरे ही इस त्रय लोक में, कोई न मम एकाकी मैं । इस भावना से योगी पाते, प्रकट शाश्वत सौख्य को।।१।। अर्थ मुनि ऐसी भावना करे कि "उर्ध्वलोक, मध्यलोक और अधोलोक-इन तीनों लोकों में मेरा कोई भी नहीं है, मै एकाकी आत्मा हूँ'-ऐसी भावना से योगी मुनि प्रकटपने जो शाश्वत सुख है उसको पाता है। भावार्थ मुनि ऐसी भावना करे कि 'त्रिलोक में जीव एकाकी है, इसका सम्बन्धी दूसरा कोई नहीं है'-यह परमार्थरूप एकत्व भावना है सो जिस मुनि के ऐसी भावना निरन्तर रहती है वह ही मोक्षमार्गी है, जो वेष लेकर भी लौकिकजनों से लालपाल रखता है वह मोक्षमार्गी नहीं है।।११।। 柴柴先崇崇先帶禁藥業業先崇崇勇崇勇兼業助兼業助業%崇明 आगे फिर कहते हैं :टि0-1.यहाँ पर 'कुन्दकुन्द स्वामी' ने बताया है कि 'मैं एकाकी हूँ, मेरा कोई नहीं'-यह परमार्थ रूप एकत्व भावना ITDवत सुख की प्राप्ति का कारण है सो मोक्षमार्ग का गुरुमंत्र स्वरूप यह भावना अत्यन्त कीमती है। 'गुणभद्र आचार्य' ने 'आत्मानुसन' में भी एक सौ दसवें' लोक में 'मैं अकिंचन हूँ, कुछ भी मेरा नहीं'-इसी भावना को तीन लोक का अधिपति बनने का योगिगम्य रहस्य कहा है। इसी भावना का भाव तत्त्वज्ञान तरंगिणी' के दसवें अध्याय के तेरहवें लोक में भी व्यक्त किया गया है कि 'मम' ये दो अक्षर तो कर्मबंध के कारण हैं और न मम' इन तीन अक्षरों का चिन्तवन मोक्ष का कारण है। 养業禁禁禁禁禁一 崇明岛崇明崇明藥業第
SR No.009483
Book TitleAstapahud
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaychand Chhabda, Kundalata Jain, Abha Jain
PublisherShailendra Piyushi Jain
Publication Year
Total Pages638
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size151 MB
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