SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 508
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 【卐卐卐業業卐業業業卐業卐業卐卐卐卐 आचार्य कुन्दकुन्द * अष्ट पाहुड़ जिन्होंने वस्त्रादि अंगीकार कर लिये, परिग्रह रखने लगे, याचना करने लगे और अधः कर्म औद्देशिक आहार करने लगे उनका निषेध है, वे मोक्षमार्ग से त हैं । वे पहिले तो भद्रबाहु स्वामी तक निर्ग्रथ थे, पीछे दुर्भिक्षकाल में भ्रष्ट होकर साधु अर्द्धफालक कहलाते थे, पीछे उनमें श्वेताम्बर हुए, उन्होंने इस वेष को पुष्ट करने को सूत्र बनाये जिनमें कई कल्पित आचरण तथा उसकी साधक कथायें लिखीं तथा इनके सिवाय अन्य भी कई वेष बदले, इस प्रकार कालदोष से जो भ्रष्टों का संप्रदाय प्रवर्तन कर रहा है सो यह मोक्षमार्ग नहीं है - ऐसा बताया है इसलिए इन भ्रष्टों को देखकर ऐसा ही मोक्षमार्ग है - ऐसा श्रद्धान नहीं करना । । ७9 ।। उत्थानिका जो मुनि १. निर्ग्रथ हैं-परिग्रह से भी परद्रव्य से ममत्वभाव नहीं है, 卐卐卐 स्वामी विरचित आगे कहते हैं कि 'मोक्षमार्गी तो ऐसे मुनि हैं :णिग्गंथमोहमुक्का बावीसपरीसहा जियकसाया । पावारंभविमुक्का गहिया मोक्खमग्गम्मि ।। 8० ।। निर्ग्रथ मोहविमुक्त, विजित कषाय, बाइस परिषही । हैं मुक्त पापारम्भ से, वे मोक्षमग में ग्रहीत हैं । 180 || अर्थ रहित हैं, २. मोह से रहित हैं- जिनके किसी ३. बाईस परीषहों का सहना जिनके पाया जाता है, ४. जिन्होंने क्रोधादि कषायों को जीत लिया है और ५. पापारंभ से रहित हैं अर्थात् ग हस्थ के करने योग्य जो आरंभादि पाप हैं उनमें नहीं प्रवर्तते हैं- वे मुनि मोक्षमार्ग में ग्रहण किये गये हैं अर्थात् माने गये हैं। भावार्थ मुनि हैं वे लौकिक वत्ति से रहित हैं। जैसा जिनेश्वर ने बाह्य अभ्यंतर परिग्रह से रहित और नग्न दिगम्बररूप मोक्षमार्ग कहा है वैसे में ही प्रवर्तते हैं, वे ही मोक्षमार्गी हैं, अन्य मोक्षमार्गी नहीं हैं ।। 8० ।। ६-६६ 卐卐卐卐 卐糕糕卐
SR No.009483
Book TitleAstapahud
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaychand Chhabda, Kundalata Jain, Abha Jain
PublisherShailendra Piyushi Jain
Publication Year
Total Pages638
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size151 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy