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________________ 卐糕卐卐卐 卐業業業業業 आचार्य कुन्दकुन्द * अष्ट पाहुड़ स्वामी विरचित अर्थ जिनकी बुद्धि पाप से मोहित है वे जिनवरेन्द्र जो तीर्थंकर देव उनका लिंग ग्रहण करके भी पाप करते हैं, वे पापी हैं, मोक्षमार्ग से च्युत हैं । भावार्थ जिन्होंने पहिले तो निर्ग्रथ लिंग धारण किया पीछे ऐसी पापबुद्धि उत्पन्न हुई कि 'अभी ध्यान का तो काल है नहीं इसलिये क्यों प्रयास करें' - ऐसा विचारकर पाप में प्रवत्ति करने लग जाते हैं वे पापी हैं, उनके मोक्षमार्ग नहीं है । ७8 ।। उत्थानिका आगे कहते हैं कि 'जो मोक्षमार्ग से च्युत हुए वे ऐसे हैं' पंचचेलसत्ता गंथगाहीय जाणसीला | आधाकम्मम्मि रया ते चत्ता मोक्खमग्गम्मि ।। ७9 ।। जो पंचचेलासक्त-परिग्रहग्राही- याचनशील हैं। औ अधःकर्म में रक्त हैं, वे मोक्षमग में त्यक्त हैं । ।७9 ।। अर्थ जो १. पाँच प्रकार के 'चेल' वस्त्रों में आसक्त हैं अर्थात् अंडज, कर्पासज, वल्कज, चर्मज और रोमज - ऐसे पाँच प्रकार के वस्त्रों में से किसी एक वस्त्र को ग्रहण करते हैं, २. 'ग्रन्थग्राही' अर्थात् परिग्रह को ग्रहण करने वाले हैं, ३. ‘याचनाशील' अर्थात् याचना मांगने ही का जिनका स्वभाव है 1 और ४. अधकर्म' जो पापकर्म उसमें रत हैं- सदोष आहार करते हैं वे मोक्षमार्ग से च्युत हैं। भावार्थ यहाँ आशय ऐसा है कि 'जो पहिले तो निर्ग्रथ दिगम्बर मुनि हुए थे पर पीछे कालदोष का विचारकर चारित्र पालने में असमर्थ हो निर्ग्रथ लिंग से भ्रष्ट होकर टि0- 1. 'श्रु0 टी0 - जो मुनि जिनमुद्रा को दिखाकर धन की याचना करते हैं वे माता को दिखाकर भाड़ा ग्रहण करने वालों के समान है। ६-६८ 卐卐卐] 卐業業卐業業業業 卐糕糕卐
SR No.009483
Book TitleAstapahud
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaychand Chhabda, Kundalata Jain, Abha Jain
PublisherShailendra Piyushi Jain
Publication Year
Total Pages638
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size151 MB
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