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________________ अष्ट पाहुड. atest स्वामी विरचित आचार्य कुन्दकुन्द COM mod 添添添添添馬樂樂男崇崇崇勇樂樂事業禁勇攀牙樂事業 अद्यापि शुद्धत्रिरत्न निज को, ध्या लहें इन्द्रत्व को। अरु देव लौकान्तिक बनें च्युत हो, वहाँ से मुक्त हो । ७७ ।। अर्थ अभी इस पंचमकाल में भी जो मुनि सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र की शुद्धता से युक्त होते हैं वे आत्मा का ध्यान कर इन्द्रपना पाते हैं तथा लौकान्तिक देवपना पाते हैं और वहाँ से चयकर निर्वाण को प्राप्त होते हैं। भावार्थ कोई कहता है कि 'अभी इस पंचम काल में जिनसूत्र में मोक्ष होना नहीं कहा इसलिये ध्यान का करना तो निष्फल खेद है ?' । उसको कहते हैं कि 'हे भाई ! मोक्ष जाने का निषेध किया है और शुक्लध्यान का निषेध किया है परन्तु धर्मध्यान का तो निषेध किया है नहीं। अभी भी जो मुनि रत्नत्रय से शुद्ध होकर धर्मध्यान में लीन होते हुए आत्मा का ध्यान करते हैं वे मुनि स्वर्ग में इन्द्रपना पाते हैं अथवा जो लौकान्तिकदेव एक भवावतारी हैं उनमें जाकर उत्पन्न होते हैं और वहाँ से चयकर मनुष्य हो मोक्ष पाते हैं। इस प्रकार धर्मध्यान से परम्परा से मोक्ष होता है तब सर्वथा निषेध क्यों करते हो ! जो निषेध करते हैं वे अज्ञानी मिथ्याद ष्टि हैं, उनको विषय-कषायों में स्वच्छंद रहना है इसलिए ऐसा कहते हैं। ७७।। 崇先养养步骤崇崇崇崇明崇榮樂事業禁禁禁禁禁禁勇 राउत्थानिका आगे कहते हैं कि 'जो इस काल में ध्यान का अभाव मानकर और जो मुनिलिंग पहिले ग्रहण किया था उसको गौण करके पाप में प्रव त्ति करते हैं वे मोक्षमार्ग से च्युत हैं' :जे पावमोहियमई लिंगं घेत्तूण जिणवरिंदाणं। पावं कुणंति पावा ते चत्ता मोक्खमग्गम्मि।। ७४।। जो पापमोहितमती धरकर, जिनवरेन्द्र के लिंग को। हैं पाप करते पापी हैं वे, मोक्षमग में त्यक्त हैं।।७8 ।। 养業業業兼藥業、崇崇崇明崇崇明崇崇明
SR No.009483
Book TitleAstapahud
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaychand Chhabda, Kundalata Jain, Abha Jain
PublisherShailendra Piyushi Jain
Publication Year
Total Pages638
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size151 MB
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