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अष्ट पाहुड़strata
वामी विरचित
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आचार्य कुन्दकुन्द
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आगे कहते हैं कि 'अभी इस पंचमकाल में धर्मध्यान होता है, जो यह नहीं
मानता है वह अज्ञानी है :भरहे दुस्समकाले धम्मज्झाणं हवेइ साहुस्स। तं अप्पसहावठिदे ण हु मण्णइ सो वि अण्णाणी।। ७६।। इस भरत दुःषम काल में, निजभाव स्थित साधु के। होता है धर्मध्यान यह नहिं, माने जो अज्ञानी वह । ७६ ।।
अर्थ इस भरत क्षेत्र में दुःषमकाल जो यह पंचमकाल उसमें साधु मुनि के धर्मध्यान होता है सो यह धर्मध्यान जो आत्मस्वभाव में स्थित है उस मुनि के होता है। जो यह नहीं मानता है वह अज्ञानी है, उसको धर्म के स्वरूप का ज्ञान नहीं है।
भावार्थ जिनसूत्र में इस भरतक्षेत्र में पंचमकाल में आत्मभावना में स्थित मुनि के धर्मध्यान कहा है सो जो यह नहीं मानता है वह अज्ञानी है, उसको धर्मध्यान के स्वरूप का ज्ञान नहीं है।। ७६।।
उत्थानिका ।
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आगे कहते हैं कि 'जो इस काल में भी रत्नत्रय का धारक मुनि होता है वह स्वर्ग में इन्द्रपना और लौकान्तिक देवपना प्राप्त करके वहाँ से चयकर मोक्ष जाता
__ है-ऐसा जिनसूत्र में कहा है' :अज्ज वि तिरयणसुद्धा अप्पा झाएवि लहइ इंदत्तं। लोयंतियदेवत्तं तत्थ चुया णिव्वुदिं जंति।। ७७।।
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