SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 504
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ अष्ट पाहुड state स्वामी विरचित आचाय कुन्दकुन्द DOC Doo Jod ADoollo सम्यक्त्व-ज्ञान रहित अभव्य मोक्ष से परिमुक्त जे। अरु सुरत भव सुख में कहें, नहिं ध्यान का है काल यह ७४ ।। अर्थ पूर्वाक्त ध्यान का अभाव कहने वाला जीव कैसा है-१. सम्यक्त्व और ज्ञान से हित है, २. अभव्य है इसी कारण मोक्ष से रहित है और ३. संसार के जो इन्द्रिय सुख हैं उन ही को भले जानकर उनमें रत है-आसक्त है इसलिये वह कहता है कि अभी ध्यान का काल नहीं है। भावार्थ जिसको इन्द्रियों के सुख ही प्रिय लगते हैं और जीव-अजीव पदार्थ के श्रद्धान-ज्ञान से जो रहित है वह ऐसा कहता है कि 'अभी ध्यान का काल नहीं है।' इससे ज्ञात होता है कि ऐसा कहने वाला अभव्य है, इसका मोक्ष नहीं होगा।७४।। 添添添添添添樂業%崇崇崇崇勇涉兼崇勇攀事業事業 柴柴先崇崇崇崇崇乐業業先崇崇勇禁藥業樂業業崇勇 फिर कहते हैं कि 'जो ऐसा कहता है कि अभी ध्यान का काल नहीं है उसने पाँच महाव्रत, पाँच समिति और तीन गुप्ति का स्वरूप नहीं जाना' : पंचसु महव्वदेसु य पंचसु समिदीसु तीसु गुत्तीसु। जो मूढो अण्णाणी ण हु कालो भणइ झाणस्स ।। ७५ ।। जो पाँच महाव्रत, पाँच समिति, गुप्ति त्रय में मूढ़ हैं। अज्ञानी वे ऐसा कहें, नहिं ध्यान का है काल यह । ७५ ।। of अर्थ जो पाँच महाव्रत, पाँच समिति और तीन गुप्ति-इनमें मूढ़ है, अज्ञानी है अर्थात् इनका स्वरूप नहीं जानता और चारित्रमोह के तीव्र उदय से इनको पाल नहीं सकता वह ऐसा कहता है कि 'अभी ध्यान का काल नहीं है' ।। ७५।। 業坊崇崇明崇明藥業| 墨業禁禁禁禁禁 Try
SR No.009483
Book TitleAstapahud
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaychand Chhabda, Kundalata Jain, Abha Jain
PublisherShailendra Piyushi Jain
Publication Year
Total Pages638
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size151 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy