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अष्ट पाहुई
अष्ट पाहुड.
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स्वामी विरचित
आचार्य कुन्दकुन्द
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निमित्त से ज्ञान में परद्रव्य से इष्ट-अनिष्ट बुद्धि होती है, उस इष्ट-अनिष्ट बुद्धि के अभाव से ज्ञान ही में जो उपयोग लगे उसको शुद्धोपयोग कहते हैं और वह ही चारित्र है सो यह जहाँ होता है वहाँ निंदा-प्रशंसा, दुःख-सुख एवं शत्रु-मित्र आदि में समान बुद्धि होती है, निंदा-प्रशंसादि का जो द्विधाभाव है वह मोहकर्म के उदयजन्य है सो उसका अभाव ही शुद्धोपयोगरूप चारित्र है।७२।।
उत्थानिका
添添添馬养業樂業兼崇明崇勇攀事業兼藥業樂業
आगे कहते हैं कि 'कई मूर्ख ऐसा कहते हैं कि अभी जो यह पंचम काल है सो
आत्मध्यान का काल नहीं है।' अब उनका निषेध करते हैं :चरियावरिया वदसमिदिवज्जिया सुद्धभावपभट्ठा। केई जंपति णरा ण हु कालो झाणजोयस्स ।। ७३ ।।
आव त चरित व्रतसमितिवर्जित, शुद्ध भाव प्रभ्रष्ट जो। वे कई नर कहें प्रकट ही, नहिं ध्यान योग का काल यह । ७३।।
崇明業巩巩巩巩巩巩巩業凱馨听听听听听听听業货業
अर्थ
कई नर-मनुष्य ऐसे हैं जिनके चर्या अर्थात् आचारक्रिया आवरित है, उनके चारित्रमोह का उदय प्रबल है जिससे चर्या प्रकट नहीं होती और इसी कारण वे व्रत एवं समिति से रहित हैं और मिथ्या अभिप्राय के कारण शुद्धभाव से अत्यंत भ्रष्ट हैं, वे ही ऐसा कहते हैं कि 'अभी पंचमकाल है सो यह काल प्रकट ध्यान-योग का नहीं है ।। ७३ ।।
वे प्राणी कैसे हैं सो आगे कहते हैं :सम्मत्तणाणरहिओ अभव्वजीवो हु मोक्खपरिमुक्को।
संसारसुहे सुरदो ण हु कालो भणइ झाणस्स।। ७४ ।। 業坊業業業樂業 TWEE६६४)
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