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________________ अष्ट पाहुड़. ata स्वामी विरचित .* आचार्य कुन्दकुन्द be Bloot 1000 0/60 添添添添添添樂業%崇崇崇崇勇涉兼崇勇攀事業事業 अप्पा झायंताणं दंसणसुद्धीण दिढचरित्ताणं । होदि धुवं णिव्वाणं विसएसु विरत्तचित्ताणं ।। ७०।। चारित्र दढ़ हो, शुद्ध दर्शन, आतमा का ध्यान हो। विषयों से चित्त विरक्तियुत, निश्चित उन्हें निर्वाण हो।। ७० ।। अर्थ पूर्वोक्त प्रकार १. विषयों से विरक्त है चित्त जिनका, २. आत्मा का ध्यान करते हुए जो वर्तते हैं, ३. बाह्य-अभ्यंतर दर्शन की शुद्धता जिनके है और ४. द ढ़ चारित्र जिनके है उनका निश्चय से निर्वाण होता है। भावार्थ पहिले कहा था कि विषयों से विरक्त हो आत्मा का स्वरूप जानकर जो आत्मा की भावना करते हैं वे संसार से छूटते हैं। उस ही अर्थं को अब यहा संक्षेप से कहा है कि जो इन्द्रियों के विषयों से विरक्त होकर बाह्य-अभ्यंतर दर्शन की शुद्धता से | दढ़ चारित्र पालते हैं उनको नियम से निर्वाण की प्राप्ति होती है। इन्द्रियों के विषयों में जो आसक्ति है सो सब अनर्थों का मूल है इसलिये उनसे विरक्त होने पर ही उपयोग आत्मा में लगता है और तब ही कार्य सिद्ध होता है।७०।। 柴柴先崇崇崇崇崇乐業業先崇崇勇禁藥業樂業業崇勇 आगे कहते हैं कि 'परद्रव्य में जो राग है वह संसार का कारण है इसलिये योगीश्वर आत्मा की भावना करते हैं' :जेण रागो परे दव्वे संसारस्स हि कारणं। तेणावि जोइणो णिच्चं कुज्जा अप्पे सुभावणा।। ७१।। परद्रव्य में है राग जो, संसार का कारण है वो। अतएव योगी नित्य ही, निज आत्मा भाया करें ।। ७१।। 养業業業兼藥業、崇崇崇明崇崇明崇崇明
SR No.009483
Book TitleAstapahud
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaychand Chhabda, Kundalata Jain, Abha Jain
PublisherShailendra Piyushi Jain
Publication Year
Total Pages638
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size151 MB
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