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अष्ट पाहुड.
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स्वामी विरचित
आचार्य कुन्दकुन्द
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भावार्थ विषयों से विरक्त हो आत्मा को जानकर उसकी भावना करो जिससे संसार से छुटकर मोक्ष पाओ-यह उपदेश है।।६४।।
उत्थानिका
उत्थानिका
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आगे कहते हैं कि 'जिसके परद्रव्य में लेश मात्र भी राग हो तो वह पुरुष अज्ञानी
है, अपना स्वरूप उसने जाना नहीं :परमाणुपमाणं वा परदव्वे रदि हवेदि मोहादो। सो मूढो अण्णाणी आदसहावस्स विवरीदो।। ६9।।
परद्रव्य में अणु मात्र भी, रति होय जिसको मोह से। विपरीत आत्मस्वभाव से वह, मूढ़ है, अज्ञानी है।। ६9।।
अर्थ जिस पुरुष के परद्रव्य में परमाणु प्रमाण भी-लेश मात्र भी मोह से 'रति' अर्थात् राग-प्रीति हो तो वह पुरुष मूढ़ है, मोही है, अज्ञानी है, आत्मस्वभाव से विपरीत है।
भावार्थ भेदज्ञान हुए पीछे जीव-अजीव को भिन्न जाने तब परद्रव्य को अपना न जाने तब उससे राग भी नहीं हो और यदि राग हो तो जानना कि इसने स्व-परका भेद जाना नहीं-अज्ञानी है, आत्मस्वभाव से प्रतिकूल है और ज्ञानी होने के बाद जब तक चारित्रमोह का उदय रहता है तब तक कुछ राग रहता है पर उसको कर्मजन्य अपराध मानता है, उस राग से राग नहीं है इसलिये विरक्त ही है अतः ज्ञानी के परद्रव्य से राग नहीं कहलाता-ऐसा जानना।।६।।
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आगे इस अर्थ को संक्षेप से कहते हैं :
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