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________________ 卐糕糕卐業卐業業業業業 आचार्य कुन्दकुन्द * अष्ट पाहुड़ स्वामी विरचित अर्थ संयुक्त है और अभ्यंतर लिंग जो परद्रव्यों से सर्व जो जीव बाह्य लिंग-वेष से रागादि ममत्व भाव से रहित आत्मा का अनुभव, उससे रहित है परिकर्म अर्थात् परिवर्तन जिसमें ऐसा है वह मुनि 'स्व चारित्र' अर्थात् अपने आत्मस्वरूप का आचरण स्वरूप जो चारित्र उससे भ्रष्ट है और इसी कारण मोक्षमार्ग का विनाश करने वाला है। भावार्थ यह संक्षेप से कहा जानो कि 'जो बाह्य लिंग संयुक्त है और अभ्यंतर भावलिंग से रहित है वह स्वरूपाचरण चारित्र से भ्रष्ट हुआ मोक्षमार्ग का नाश करने वाला है' । ।६१ । । उत्थानिका OP आगे कहते हैं कि 'जो सुख से भाया हुआ ज्ञान है वह दुःख आने पर नष्ट हो जाता है इसलिए तपश्चरण सहित ज्ञान को भाना' : सुण भाविदं णाणं दुक्खे जादे विणस्सदि । तम्हा जहाबलं जोई अप्पा दुक्खेहिं भावए ।। ६२ ।। में जो भावित ज्ञान दुःख, आने पे नाश को प्राप्त हो । सुख अतएव यथाबल दुःख सहित, हे योगी ! भाओ आत्म तुम ।। ६२ ।। अर्थ जो सुख से भाया हुआ ज्ञान है वह दुःख आने पर विनष्ट होता है इसलिए यह उपदेश है कि जो योगी-ध्यानी मुनि है सो तपश्चरणादि के कष्ट अर्थात् यथाशक्ति दुःख सहित आत्मा को भाओ । भावार्थ तपश्चरण का कष्ट अंगीकार करके यदि ज्ञान को भाता है तो परिषह आने पर ज्ञान भावना से चिगता नहीं इसलिए शक्ति के अनुसार दुःख सहित ज्ञान को भाना, यदि सुख ही में भावे तो दुःख आने पर व्याकुल हो जावे तब ज्ञान भावना न रहे इसलिए यह उपदेश है । । ६२ ।। ६-५६ 【專 業 業業業業業業業業業 卐糕糕卐
SR No.009483
Book TitleAstapahud
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaychand Chhabda, Kundalata Jain, Abha Jain
PublisherShailendra Piyushi Jain
Publication Year
Total Pages638
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size151 MB
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