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आचार्य कुन्दकुन्द
* अष्ट पाहुड़
धुवसिद्धी तित्थयरो चउणाणजुदो करेइ तवयरणं ।
स्वामी विरचित
णाऊण धुवं कुज्जा तवयरणं णाणजुत्ते वि ।। ६० ।।
चउ ज्ञान और ध्रुव सिद्धिधारक, तीर्थकर भी तप करे ।
यह जान निश्चित ज्ञानयुत, होने पे भी तुम तप करो ।। ६० ।।
अर्थ
आचार्य कहते हैं कि देखो, नियम से जिनकी मोक्ष होनी है और चार ज्ञान
जो मति, श्रुत, अवधि और मन:पर्यय इनसे युक्त हैं ऐसे तीर्थंकर हैं सो भी
तपश्चरण करते हैं ऐसा निश्चय से जानकर ज्ञान से युक्त होने पर भी तप करना योग्य है।
होनी है तो भी वे तप करते हैं
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भावार्थ
तीर्थंकर मति, श्रुति और अवधि - इन तीन ज्ञान सहित तो जन्म लेते हैं तथा
दीक्षा लेते ही उनके मन:पर्यय ज्ञान उत्पन्न होता है तथा मोक्ष उनके नियम से
में तत्पर होना, ज्ञान मात्र ही
इसलिए ऐसा जानकर ज्ञान होते हुए भी तप करने
से मुक्ति नहीं मानना । । ६० ।।
उत्थानिका
आगे जो बाह्य लिंग से युक्त है और अभ्यंतर लिंग रहित है वह
स्वरूपाचरण चारित्र से भ्रष्ट हुआ मोक्षमार्ग का विनाश करने वाला है - ऐसा सामान्य से कहते हैं :
बाहिर लिंगेण जुदो अब्भंतरलिंगरहिदपरियम्मो ।
सो
सगचरित्तभट्टो मोखपहविणासगो साहू ।। ६१ । । है सहित बाहिर लिंग, अन्तरर्लिंग रहित परिकर्मयुत ।
वह स्वचारित्र से भ्रष्ट, शिव मारग विनाशक साधु है ।। ६१ ।।
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