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________________ *業業業業業業業業業業業業業業 आचार्य कुन्दकुन्द * अष्ट पाहुड़ अर्थ कर्म ही में उत्पन्न होती है बुद्धि जिसकी ऐसा जो पुरुष है सो स्वभावज्ञान जो केवलज्ञान उसको खंड रूप दूषण का करने वाला है । इन्द्रिय ज्ञान खंड-खंड रूप है, केवल अपने-अपने विषय को जानता है सो इतने मात्र ही ज्ञान को माना इस कारण से ऐसा मानने वाला अज्ञानी है, जिनमत का दूषक है। भावार्थ मीमांसकमती कर्मवादी है - सर्वज्ञ को मानता नहीं और इन्द्रियज्ञान मात्र ही ज्ञान को मानता है - केवलज्ञान को मानता नहीं, उसका यहाँ प्रतिषेध किया है क्योंकि जिनमत में आत्मा का स्वभाव सबको जानने वाला जो केवलज्ञान स्वरूप कहा है वह कर्म के निमित्त से आच्छादित होकर इन्द्रियों के द्वारा क्षयोपशम के निमित्त से खंड रूप हुआ खंड-खंड विषयों को जानता है और कर्म का नाश होने पर केवलज्ञान प्रकट होता है तब आत्मा सर्वज्ञ होता है - ऐसा मीमांसकमती मानता नहीं सो वह अज्ञानी है, जिनमत से प्रतिकूल है, कर्म मात्र ही में उसकी बुद्धि गत हो रही है। ऐसा यदि कोई और भी मानते हों तो उन्हें भी ऐसा ही जानना । । ५६ ।। उत्थानिका go आगे कहते हैं कि 'ज्ञान तो चारित्र स्वामी विरचित रहित हो, तप सम्यक्त्व रहित हो और अन्य भी क्रिया भावपूर्वक न हो तो ऐसे केवल लिंग-वेषमात्र ही से क्या सुख है अर्थात् कुछ भी नहीं' : णाणं चरित्तहीणं दंसणहीणं तवेहिं संजुत्तं । अण्णेसु भावरहियं लिंगगहणेण किं सोक्खं । । ५७ ।। चारित्रहीन तो ज्ञान हो, तपयुक्त दर्शनहीन जो । है भावरहित जो अन्य में उस, लिंग से क्या सौख्य है ।। ५७ ।। अर्थ जहाँ ज्ञान तो चारित्र रहित है तथा तप से तो युक्त है परन्तु दर्शन जो सम्यक्त्व उससे रहित है तथा अन्य भी आवश्यक आदि जो क्रिया हैं उनमें शुद्ध भाव नहीं है - ऐसे लिंग जो वेष उसके ग्रहण में क्या सुख है ! ६-५२ 卐卐卐] 蛋糕蛋糕糕蛋糕糕蛋糕糕 卐糕糕卐業卐
SR No.009483
Book TitleAstapahud
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaychand Chhabda, Kundalata Jain, Abha Jain
PublisherShailendra Piyushi Jain
Publication Year
Total Pages638
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size151 MB
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