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आचार्य कुन्दकुन्द
* अष्ट पाहुड़
स्वामी विरचित
आसवहेदूय तहा भावं मोक्खस्स कारणं हवदि ।
सो तेण दु अण्णाणी आदसहावस्स विवरीदो ।। ५५ ।। आसरवहेतु मोक्षविषयक, राग को क्योंकि करे ।
वह इसलिए अज्ञानी है, स्व स्वभाव से विपरीत है ।। ५५ ।।
अर्थ
जैसे परद्रव्य में राग को कर्म बंध का कारण पूर्व में कहा वैसे ही रागभाव यदि मोक्ष के निमित्त भी हो तो वह आस्रव ही का कारण है, कर्म का बंध ही करता है
इस कारण से यदि मोक्ष को परद्रव्य की तरह इष्ट मानकर वैसा ही राग भाव करे
तो वह जीव मुनि भी अज्ञानी है । सो कैसा है वह - आत्मस्वभाव से विपरीत है, उसने आत्मस्वभाव को जाना नहीं ।
भावार्थ
मोक्ष तो सब कर्मों से रहित अपना स्वभाव था कि 'आपको सर्व कर्मों से रहित होना' सो यह भी रागभाव ज्ञानी के नहीं होता । यद्यपि चारित्रमोह के उदय से उसे
राग होता है तो भी उस राग को यदि बंध का कारण जानकर रोगवत् छोड़ना ही चाहे तो वह ज्ञानी है ही परन्तु उस राग को यदि भला जानकर स्वयं आप करे तो अज्ञानी है क्योंकि आत्मा का स्वभाव जो सर्व रागादि से रहित है उसको इसने नहीं जाना। इस प्रकार रागभाव को जो मोक्ष का कारण और भला जानकर करे उसका निषेध जानना । । ५५ ।
उत्थानिका
आगे कहते हैं कि 'जो कर्म ही मात्र सिद्धि मानता है उसने आत्मस्वभाव को जाना नहीं, वह अज्ञानी है, जिनमत से प्रतिकूल है' :
जो कम्मजादमइओ सहावणाणस्स खंडदूसयरो ।
सो तेण दु अण्णाणी जिणसासणदूसगो भणिओ ।। ५६ । ।
कर्मोत्पन्न मति से युत, दूषक है केवलज्ञान का ।
अतएव उसे अज्ञानी, जिनशासन का दूषक है कहा ।। ५६ ।।
६-५१
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