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आचार्य कुन्दकुन्द
* अष्ट पाहुड़
स्वामी विरचित
उत्थानिका
आगे कहते हैं कि 'अज्ञानी कैसा होता है ? जो इष्ट वस्तु
के सम्बन्ध से परद्रव्य
में राग-द्वेष करता वह उस भाव से अज्ञानी होता है, ज्ञानी इससे उल्टा है' :भजोगेण सुभावं परदव्वे कुणइ रागदोसा हु ।
सो तेण दु अण्णाणी णाणी एतो दु विवरीदो । । ५४ । ।
योग से परद्रव्य प्रीति, प्रकट राग अरु द्वेष है ।
शुभ
अतएव वह अज्ञानी है, विपरीत इससे ज्ञानी है ।। ५४ । ।
अर्थ
'शुभ योग' अर्थात् अपने जो इष्ट वस्तु का योग सम्बन्ध उससे परद्रव्य में जो
‘सुभाव' अर्थात् प्रीतिभाव का करना है सो प्रकट राग-द्वेष है, इष्ट में राग हुआ तब अनिष्ट वस्तु में द्वेष भाव होता ही है-इस प्रकार जो राग-द्वेष करता है वह उस
कारण से रागी-द्वेषी, अज्ञानी है तथा जो इससे विपरीत उल्टा है अर्थात् परद्रव्य में राग-द्वेष नहीं करता है वह ज्ञानी है ।
भावार्थ
ज्ञानी सम्यग्दष्टि मुनि के परद्रव्य में राग, द्वेष, मोह नहीं है क्योंकि राग उसे कहते हैं कि जो परद्रव्य को सर्वथा इष्ट मानकर राग करना वैसे ही द्वेष उसे कहते हैं कि जो उसे अनिष्ट मानकर द्वेष करना सो सम्यग्ज्ञानी परद्रव्य में इष्ट-अनिष्ट की कल्पना नहीं करता तब उसे राग-द्वेष क्यों हो ! चारित्रमोह के
उदय से जो कुछ धर्मराग होता है उसको भी रोग जानकर वह भला नहीं जानता तब अन्य से कैसे राग हो ! परद्रव्य से जो राग-द्वेष करता है वह तो अज्ञानी ही है - ऐसा जानना । । ५४ ।।
उत्थानिका
आगे कहते हैं कि 'जैसे परद्रव्य में रागभाव होता है वैसे मोक्ष के निमित्त भी यदि राग हो तो वह भी राग आस्रव का कारण है, उसे भी ज्ञानी नहीं करता' :६-५०
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