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अष्ट पाहड
स्वामी विरचित
आचार्य कुन्दकुन्द
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भावार्थ कोई मुनि वेष मात्र तो निर्ग्रन्थ हुआ और शास्त्र भी पढ़ता है उसको कहते हैं कि शास्त्र पढ़कर ज्ञान तो किया परन्तु निश्चय चारित्र जो शुद्ध आत्मा का अनुभव रूप तथा बाह्य चारित्र निर्दोष नहीं किया; और तप का क्लेश बहुत किया परन्तु सम्यक्त्व भावना नहीं हुई; और आवश्यक आदि बाह्य क्रिया की पर भाव शुद्ध नहीं लगाये तो ऐसे बाह्य वेष मात्र में तो क्लेश ही हुआ कुछ शान्त भाव रूप सुख तो नहीं हुआ और यह वेष परलोक के सुख में भी कारण नहीं हुआ, इसलिए सम्यक्त्वपूर्वक वेष धारण करना श्रेष्ठ है।।५७।।
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आगे सांख्यमती आदि के आशय का निषेध करते हैं :अचेयणम्मि चेदा जो मण्णइ सो हवेइ अण्णाणी। सो पुण णाणी भणिओ जो मण्णइ चेयणे चेदा।। ५४।।
जो मानता चेतन अचित को, वह अज्ञानी होय है। ज्ञानी कहा है उसको जो, चेतन को चेतन मानता ।। ५8 ।।
अर्थ जो अचेतन में चेतन को मानता है वह अज्ञानी है तथा जो चेतन में ही चेतन को मानता है उसे ज्ञानी कहा है।
भावार्थ (१) सांख्यमती ऐसा कहता है कि पुरुष तो उदासीन चेतनास्वरूप नित्य है और यह ज्ञान है सो प्रधान का है। उनके मत में जो पुरुष को उदासीन चेतनास्वरूप माना सो ज्ञान के बिना तो वह जड़ ही हुआ, ज्ञान बिना चेतन कैसा तथा ज्ञान को प्रधान का धर्म माना और प्रधान को जड़ माना तो अचेतन में चेतना मानी तब अज्ञानी ही हुआ। (२) नैयायिक-वैशेषिकमती गुण-गुणी में सर्वथा भेद मानते हैं तो चेतना गुण को जीव से भिन्न माना तब जीव तो अचेतन ही रहा-इस प्रकार अचेतन में चेतनपना माना। (३) भूतवादी-चार्वाक भूत और पथ्वी आदि से
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