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अष्ट पाहुड़sta
स्वामी विरचित
आचाय कुन्दकुन्द
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उत्थानिका
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आगे इस ही अर्थ को द ढ़ करते हुए कहते हैं :णवि देहो वंदिज्जइ णवि य कुलो णवि य जाइसंजुत्तो। को वंददि गुणहीणो ण हु सवणो णेय सावओ होई।। २७।।
नहिं देह वंद्य, न वंद्य कुल, नहिं जातिसंयुत वंद्य है। गुणहीन को वंदेगा कौन, वह श्रमण नहिं श्रावक नहिं । ।२७ ।।
अर्थ देह की वंदना नहीं की जाती तथा कुल की वंदना नहीं की जाती तथा जाति संयुक्त की भी वंदना नहीं की जाती क्योंकि गुणरहित हो उसकी कौन वंदना करे! गुण के बिना न तो मुनि ही होता है और न ही श्रावक।
भावार्थ लोक में भी ऐसा न्याय है कि जो गुणहीन हो उसको कोई श्रेष्ठ नहीं मानता, (१) देह रूपवान हो तो क्या ! (२) कुल बड़ा हुआ तो क्या और (३) जाति बड़ी हुई तो क्या क्योंकि मोक्षमार्ग में तो दर्शन-ज्ञान-चारित्र गुण हैं, इनके बिना जाति, कुल, रूप आदि वंदनीय नहीं हैं, इनसे मुनि-श्रावकपना आता नहीं है। मुनि श्रावकपना तो सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र से होता है इसलिए वे ही वंदने योग्य हैं, जाति, कुल, रूप आदि वंदने योग्य नहीं हैं। ।२७ ।।
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आगे कहते हैं कि 'जो तप आदि से संयुक्त हैं उनकी वंदना करता हूँ' :
वंदमि तवसामण्णा सीलं च गुणं च बंभचेरं च। सिद्धिगमणं च तेसिं सम्मत्तेण सुद्धभावेण ।। २८।। वंदूं श्रमण संयुक्त तप, गुण शील अरु ब्रह्मचर्य को।
सम्यक्त्वयुत शुध भाव से, जिससे कि सिद्धिगमन हो।।२८ ।। 虽業業助聽功崇为業業助業 業業助聽業事業樂業
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