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आचार्य कुन्दकुन्द
● अष्ट पाहुड़
नहिं नमन योग्य असंयमी, नहिं वंद्य वस्त्र विहीन भी ।
दोनों हैं एक समान इनमें संयमी नहिं एक भी ।। २६ । ।
अर्थ
असंयमी की वंदना नहीं करनी चाहिए तथा भाव संयम न हो और बाह्य में वस्त्र रहित हो वह भी वंदन के योग्य नहीं है क्योंकि ये दोनों ही संयम रहित समान हैं, इनमें एक भी संयमी नहीं है।
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स्वामी विरचित
भावार्थ
जिसने ग हस्थ वेष धारण कर रखा है वह तो असंयमी है ही परन्तु जिसने बाह्य में नग्न रूप धारण किया है पर अन्तरंग में भावसंयम नहीं है वह भी असंयमी ही है और क्योंकि ये दोनों ही असंयमी हैं इसलिए दोनों ही वंदने योग्य नहीं हैं । यहाँ आशय ऐसा है कि ऐसा मत जानना कि आचार्य यथाजात रूप को दर्शन कहते आ रहे हैं तो केवल नग्न रूप ही यथाजात रूप होगा क्योंकि आचार्य तो जो बाह्य अभ्यंतर सब परिग्रह से रहित हो उसको यथाजात रूप कहते हैं । अभ्यन्तर भाव संयम के बिना बाह्य में नग्न होने से तो कुछ संयमी होता नहीं है-ऐसा जानना ।
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यहाँ कोई पूछता है - बाह्य वेष शुद्ध हो, आचार निर्दोष पालता हो पर उसके अभ्यंतर भाव में कपट हो उसका निश्चय कैसे हो तथा सूक्ष्म भाव केवलीगम्य मिथ्यात्व हो उसका निश्चय कैसे हो और निश्चय के बिना वंदने की क्या रीति है ? उसका समाधान-कपट का जब तक निश्चय नहीं हो तब तक तो शुद्ध आचार देखकर वंदना करे उसमें दोष नहीं है और कपट का किसी कारण से निश्चय हो जाये तब वंदना नहीं करे तथा केवलीगम्य मिथ्यात्व की व्यवहार में चर्चा नहीं है, छद्मस्थ के ज्ञानगम्य की चर्चा है। जो अपने ज्ञान का विषय ही नहीं है उसका बाध-निर्बाध करने का व्यवहार नहीं है, सर्वज्ञ की भी यह ही आज्ञा है । व्यवहारी जीव को व्यवहार ही का शरण है। अतः अपने ज्ञानगोचर अन्तरंग - बाह्य की शुद्धता का निश्चय करके वंदना एवं पूजना- ऐसा जानना । । २६ ।।
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