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अष्ट पाहुड़sta
स्वामी विरचित
आचार्य कुन्दकुन्द
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जानो कि इसके इस रूप की श्रद्धा एवं रुचि नहीं है और ऐसी श्रद्धा रुचि के बिना तो मिथ्याद ष्टि ही है। यहाँ आशय ऐसा है कि जो श्वेताम्बरादि हुए वे दिगम्बर रूप से मत्सर भाव रखते हैं और उसका विनय नहीं करते उनका निषेध है।।२४।।
आगे इसी को द ढ़ करते हैं :अमराण वंदियाणं रूवं दळूण सीलसहियाणं । जो गारवं करेंति य सम्मत्तविवज्जिया होति।। २५।। देवेन्द्रवंदित शीलयुत, मुनिरूप है जिनदेव का। गारव करे जो देखकर, सम्यक्त्व विरहित जीव वह।।५।।
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अर्थ देवों से वंदनीय एवं शीलसहित जो जिनेश्वर देव का यथाजात रूप उसे धारण करने वालों का रूप देखकर जो गारव करते हैं और विनयादि नहीं करते वे सम्यक्त्व से रहित हैं।
भावार्थ जिस रूप को देखकर अणिमादि ऋद्धि के धारी देव भी पैरों में पड़ते हैं उसको देखकर जो मत्सरभाव से वंदना नहीं करते हैं उनके कैसा सम्यक्त्व अर्थात वे सम्यक्त्व से रहित ही हैं।।२५।।
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उत्थानिका "EN
आगे कहते हैं कि 'असंयमी वंदने योग्य नहीं है' :अस्संजदं ण वंदे वत्थविहीणोवि सो ण वंदिज्ज।
दोण्णिवि होंति समाणा एगो वि ण संजदो होदि।। २६ ।।। 崇明業業業樂業路器禁禁禁禁禁禁期