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आचार्य कुन्दकुन्द
● अष्ट पाहुड़
Mea स्वामी विरचित
दंसणणाणचरित्ते तवविणए णिच्चकालसुपसत्था । एदे दु वंदणीया जे गुणवादी गणधराणं ।। २३ । ।
तप-विनय-दर्शन-ज्ञान-चारित, में सदा जो तिष्ठते ।
वे वन्दना के योग्य जो, गुणवादी हैं गणधरों के ।। २३ । ।
अर्थ
दर्शन, ज्ञान, चारित्र, तप तथा विनय- इनमें जो भली प्रकार स्थित हैं वे प्रशस्त हैं-सराहने योग्य हैं अथवा भली प्रकार स्वस्थ हैं- लीन हैं तथा गणधर आचार्यों का गुणानुवाद करने वाले हैं वे वंदन के योग्य हैं । अन्य जो दर्शनादि से भ्रष्ट हैं और गुणवानों से मत्सर भाव रखकर विनय रूप नहीं प्रवर्तते हैं वे वंदन के योग्य नहीं हैं ।। २३ ।।
उत्थानिका
आगे कहते हैं कि 'जो यथाजात रूप को देखकर मत्सरभाव से वंदना नहीं करते हैं वे मिथ्याद ष्टि हैं :
सहजुप्पण्णं रूवं दट्ठू जो मण्णए ण मच्छरिओ । सो संजमपडिपण्णो मिच्छाइट्टी
हवइ एसो ।। २४ ।।
मुनि यथाजात स्वरूप लख, नहिं मानें मत्सर भाव से । संयम से युक्त ही हों भले, पर मिथ्याद ष्टि होय हैं ।। २४ ।।
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अर्थ
जो सहजोत्पन्न यथाजात रूप को देखकर नहीं मानते हैं, उसका विनय, सत्कार एवं प्रीति नहीं करते हैं और मत्सर भाव करते हैं वे संयम प्रतिपन्न हैं अर्थात् दीक्षा ग्रहण की हुई है तो भी प्रत्यक्ष मिथ्याद ष्टि हैं I
भावार्थ
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जो यथाजात रूप को देखकर मत्सर भाव से उसका विनय नहीं करता तो ऐसा
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