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________________ 豪業業業業業業業業業業業業業出版 आचार्य कुन्दकुन्द * अष्ट पाहुड़ स्वामी विरचित उत्थानिका आगे 'दर्शन-ज्ञान-चारित्र से निर्वाण होता है-ऐसा जो कहते आए सो उनमें दर्शन, ज्ञान तो जीव का स्वरूप है उसको जाना पर यह चारित्र क्या है' - ऐसी आशंका का उत्तर कहते हैं : चरणं हवइ सधम्मो धम्मो सो हवइ अप्पसमभावो । सो रायदोसरहिओ जीवस्स अणण्णपरिणामो ।। ५० ।। चारित्र से निजधर्म है, वह धर्म निज समभाव है। वह राग-द्वेष रहित ही जीव का, तन्मयी परिणाम है ।। ५० ।। अर्थ 'स्वधर्म' अर्थात् आत्मा का जो धर्म है वह 'चरण' अर्थात् चारित्र है तथा धर्म है सो आत्मसमभाव है–सब जीवों में समान भाव है। जो अपना धर्म है सो ही सब जीवों सो में है अथवा सब जीवों को अपने समान मानना है तथा जो आत्म समभाव राग-द्वेष से रहित है, किसी से इष्ट-अनिष्ट बुद्धि नहीं है - ऐसा चारित्र है सो जैसे जीव के दर्शन ज्ञान हैं वैसे ही यह भी अनन्य परिणाम है, जीव ही का भाव है । भावार्थ चारित्र है वह ज्ञान में राग-द्वेष रहित निराकुल रूप स्थिरता भाव है सो जीव ही का अमेद रूप परिणाम है, कुछ अन्य वस्तु नहीं है ।। ५० ।। उत्थानिका आगे जीव के परिणाम की स्वच्छता को द ष्टान्त से दिखाते हैं : जह फहिमणि विसुद्धो परदव्वजुदो हवेइ अण्णं सो। तह रागादिविजुत्तो जीवो हवदि हु अण्णण्णविहो ।। ५१ ।। जैसे स्फटिकमणि शुद्ध भी, परद्रव्ययुत हो अन्य हो । रागादिसंयुत जीव वैसे, प्रकट हो अन्यान्यविध ।। ५१ । । ६-४७ 卐卐卐] 卐業業業業卐卐糕糕 卐糕糕卐
SR No.009483
Book TitleAstapahud
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaychand Chhabda, Kundalata Jain, Abha Jain
PublisherShailendra Piyushi Jain
Publication Year
Total Pages638
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size151 MB
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