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अष्ट पाहुड
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स्वामी विरचित
खामा विरचित
आचार्य कुन्दकुन्द
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भावार्थ मुनि भी हो परन्तु परजन्म सम्बन्धी प्राप्ति का लोभ हो-निदान करे तो उसके परमात्मा का ध्यान नहीं होता क्योंकि जो परमात्मा का ध्यान करता है उसके इसलोक व परलोक सम्बन्धी परद्रव्य का कुछ भी लोभ नहीं होता और इसी कारण उसके नवीन कर्म का आस्रव नहीं होता-ऐसा जिनदेव ने कहा है। यह लोभ कषाय ऐसी है कि दसवें गुणस्थान तक पहुंच कर अव्यक्त होकर भी आत्मा के मल लगाती है इसलिए इसका काटना ही युक्त है अथवा जहाँ तक मोक्ष की चाह रूप लोभ रहता है वहाँ तक मोक्ष नहीं होता इसलिए लोभ का अत्यन्त निषेध है।।४।।
उत्थानिका
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आगे कहते हैं कि 'जो ऐसा निर्लोभी होकर दढ़ सम्यक्त्व, ज्ञान व चारित्रवान हुआ परमात्मा का ध्यान करता है वह परम पद को पाता है :होऊण दिढचरित्तो दिढसम्मत्तेण भावियमदीओ। झायंतो अप्पाणं परमपयं पावए जोई।। ४9।।।
सम्यक्त्व द ढ़ भावितमति, चारित्र दढ़ से युक्त हो। ध्याते हुए आत्मा को वह, प्राप्ती परम पद की करे।। ४9।।
अर्थ ऐसे पूर्वोक्त प्रकार योगी-ध्यानी मुनि, द ढ़ सम्यक्त्व से भावित है मति जिसकी तथा द ढ़ है चारित्र जिसका-ऐसा होकर आत्मा का ध्यान करता हुआ परमपद जो परमात्मपद उसको पाता है।
भावार्थ सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र रूप द ढ़ होकर परिषह आने पर भी न चिगेइस प्रकार जो आत्मा का ध्यान करता है वह परमपद को पाता है-यह तात्पर्य है।।४६ ।।
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