SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 484
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ अष्ट पाहुड state " स्वामा विरचित वामी विरचित आचार्य कुन्दकुन्द .... 811 FO ADOO olod Deo/ CHOCH अर्थ जिनमुद्रा है सो ही सिद्धिसुख है, वह मुक्ति सुख ही है-यह कारण में कार्य का उपचार जानना। जिनमुद्रा मोक्ष का कारण है, मोक्षसुख उसका कार्य है। कैसी है जिनमुद्रा-जिनभगवान ने जैसी कही है वैसी है। ऐसी जिनमुद्रा जिस जीव को साक्षात् तो दूर रहो, स्वप्न में भी कदाचित् नहीं रुचती है, उसका यदि स्वप्न आता है तो भी अवज्ञा आती है तो वह जीव संसार रूपी गहन वन में ही तिष्ठता है, मोक्ष के सुख को नहीं पाता है। भावार्थ जिनदेवभाषित जिनमुद्रा मोक्ष की कारण है सो मोक्ष रूप ही है क्योंकि जिनमुद्रा के धारक वर्तमान में भी स्वाधीन सुख को भोगते हैं और पीछे मोक्ष का सुख पाते हैं और जिस जीव को यह नहीं रुचती है वह मोक्ष को नहीं पाता है, संसार ही में रहता है।।४७।। उत्थानिका । 添添添添添添樂業%崇崇崇崇勇涉兼崇勇攀事業事業 आगे कहते हैं कि 'जो परमात्मा का ध्यान करता है वह योगी लोभ रहित होकर नवीन कर्म का आस्रव नहीं करता है' :परमप्पा झायंतो जोई मुच्चेइ मलदलोहेण । णादियदि णवं कम्मं णिद्दिष्टुं जिणवरिंदेहिं।। ४४।। मलजनक लोभ से छूटे योगी, ध्यान से परमात्म के। नव कर्म आस्रव न उसे, यह जिनवरेन्द्रों ने कहा।। ४8 ।। अर्थ जो योगी-ध्यानी मुनि परमात्मा का ध्यान करता हआ वर्तता है वह मल के देने वाले लोभकषाय से छूट जाता है, उसके लोभ मल नहीं लगता है और इसी से नवीन कर्म का आस्रव उसके नहीं होता है-यह जिनवरेन्द्र तीर्थंकर सर्वज्ञदेव ने कहा है। 崇崇崇崇崇崇崇崇崇崇藥藥事業事業業助兼勇崇勇 業業藥崇崇明崇明 崇崇明崇明崇明崇崇明
SR No.009483
Book TitleAstapahud
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaychand Chhabda, Kundalata Jain, Abha Jain
PublisherShailendra Piyushi Jain
Publication Year
Total Pages638
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size151 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy