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अष्ट पाहुड.
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स्वामी विरचित
आचार्य कुन्दकुन्द
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विसयकसाएहिं जुदो रुद्दो परमप्पभावरहियमणो। सो ण लहइ सिद्धिसुहं जिणमुद्दपरम्मुहो जीवो।। ४६।।
परमात्मभावरहितमना है, रुद्र विषय-कषाय यूत। जिनमुद्रा से जो विमुख जीव, वो, सिद्धि सुख पाता नहीं।। ४६ ।।
अर्थ जो जीव (१) विषय-कषायों से युक्त है, (२) रौद्र परिणामी है-हिंसादि एवं विषय-कषायादि पापों में हर्ष सहित प्रव त्ति करता है तथा (३) जिसका चित्त परमात्मा की भावना से रहित है वह जीव जिनमुद्रा से पराङ्मुख है वह ऐसा सिद्धिसुख जो मोक्ष का सुख उसकी नहीं पाता है।
भावार्थ जिनमत में ऐसा उपदेश है कि १. जो हिसादि पापों से विरक्त हो, २. विषय-कषायों में आसक्त न हो और ३. परमात्मा का स्वरूप जानकर उसकी भावना सहित हो वह जीव मोक्ष पाता है अतः जिनमत की मुद्रा से जो पराङ्मुख है उसके कैसे मोक्ष हो, वह तो संसार ही में भ्रमण करता है। यहाँ गाथा में जो 'रुद्र' विशेषण दिया है उसका ऐसा भी आशय है कि ग्यारह जो रुद्र होते हैं वे विषय-कषायों में आसक्त होकर जिनमुद्रा से भ्रष्ट होते हैं, उनके मोक्ष नहीं होता। इनकी कथा पुराणों से जानना ।।४६ ।।
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उत्थानिका
आगे कहते हैं कि 'जिनमुद्रा से मोक्ष होता है सो यह मुद्रा जिन जीवों को नहीं
रुचती है वे संसार ही में रहते हैं' :जिणमुद्दा सिद्धिसुहं हवेइ णियमेण जिणवरुद्दिवा। सिविणे वि ण रुच्चइ पुण जीवा अच्छंति भवगहणे।। ४७।।
उपदेश जिनवर का है यह जिन मुद्रा शिवमुख नियम से। रुचती न स्वप्न में भी जिन्हें, वे गहन भव-वन में रहें।। ४७।।
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