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अष्ट पाहुड
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स्वामी विरचित
आचार्य कुन्दकुन्द
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दर्शन-ज्ञान-चारित्र मंडित कहा तथा (४) राग-द्वेष, इष्ट-अनिष्ट बुद्धि रहे तब ध्यान कैसे हो इसलिये परमात्मा का जो ध्यान करे वह इस उपरोक्त प्रकार का होकर करे-यह तात्पर्य है।।४४।।
उत्थानिका आगे कहते हैं कि 'जो ऐसा होता है वह उत्तम सुख को पाता है' :
मयमायकोहरहिओ लोहेण विवज्जिओ य जो जीवो। णिम्मलसहावजुत्तो सो पावइ उत्तम सोक्खं ।। ४५।।
मद, क्रोध, माया से रहित, अरु लोभ वर्जित जीव जो। निर्मल स्वभाव से युक्त हो, वह पाता उत्तम सौरव्य को।। ४५ ।।
अर्थ जो जीव मद, माया एवं क्रोध से रहित हो तथा लोभ से विशेष रूप से रहित हो वह जीव निर्मल विशुद्ध स्वभाव युक्त हुआ उत्तम सुख को पाता है।
भावार्थ लोक में भी ऐसा है कि जो जीव 'मद' अर्थात् अति मान तथा माया-कपट और क्रोध से रहित होता है और लोभ से विशेष रूप से रहित होता है वह सुख पाता है तथा तीव्र कषायी अति आकुलता से युक्त होकर निरन्तर दुःखी रहता है सो यह रीति मोक्षमार्ग में भी जानो कि यहाँ भी जब क्रोध, मान, माया व लोभ-इन चार कषायों से रहित होता है तब निर्मल भाव होते हैं और तब ही यथाख्यात चारित्र पाकर उत्तम सुख पाता है।।४५।।
राउत्थानिका
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आगे कहते हैं कि 'जो विषय-कषायों में आसक्त है, परमात्मा की भावना से रहित है और रौद्र परिणामी है सो जिनमत से पराङ्मुख है वह मोक्ष के सुख
को नहीं पाता है' :業坊業業業樂業
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