________________
*業業業業業業業業業業
आचार्य कुन्दकुन्द
* अष्ट पाहुड़
स्वामी विरचित
भावार्थ
पांच महाव्रत, पांच समिति और तीन गुप्ति - यह तेरह प्रकार का चारित्र है सो
यही प्रवत्ति रूप व्यवहार चारित्र संयम है सो जो संयमी मुनि इसको अंगीकार करके पूर्वोक्त प्रकार निश्चय रत्नत्रय से युक्त होकर अपनी शक्ति के अनुसार उपवास एवं कायक्लेशादि बाह्य तप करता है वह मुनि अन्तरंग तप जो ध्यान उसके द्वारा शुद्ध आत्मा को एकाग्रचित्त से ध्याता हुआ निर्वाण को पाता है । । ४३ ।।
उत्थानिका
आगे कहते हैं कि 'ध्यानी मुनि ऐसा होकर परमात्मा का ध्यान करता है :
तिर्हि तिण्णि धरवि णिच्चं तियरहिओ तह तिएण परियरिओ ।
दोदोसविप्पमुक्को
त्रिकरहित त्रिक परिकरित तीन को, तीन से नित धारकर ।
दो दोषों से हो मुक्त योगी, ध्यान परमातम करे । । ४४ ।।
परमप्पा झाइए जोई ।। ४४ ।।
अर्थ
(१) ‘त्रिभिः’ अर्थात् मन-वचन-काय से, (२) 'त्रीन्' अर्थात् वर्षा, शीत एवं उष्ण–इन तीन काल योगों को धारण करके, (३) 'त्रिकरहित' अर्थात् माया, मिथ्या और निदान इन तीन शल्यों से रहित हुआ, (४) 'त्रयेण परिकरितः' अर्थात् दर्शन-ज्ञान-चारित्र से मंडित होकर तथा (५) दो जो राग-द्वेष वे ही हुए दोष उनसे रहित हुआ जो योगी-ध्यानी मुनि है वह 'परमात्मा' जो सर्व कर्म रहित शुद्ध परमात्मा उसका ध्यान करता है ।
卐卐卐]
भावार्थ
(१) तीन काल योग धारण करके मन-वचन-काय से परमात्मा का ध्यान करे सो ऐसे कष्ट में दढ़ रहे तब जानना कि इसके ध्यान की सिद्धि है, कष्ट आने पर चलायमान हो जाए तब ध्यान की सिद्धि कैसी ! (२) चित्त में किसी प्रकार की शल्य रहे तब चित्त एकाग्र नहीं होता तब ध्यान कैसे हो इसलिए 'शल्यरहित ' कहा । (३) श्रद्धान, ज्ञान, आचरण यथार्थ न हो तब ध्यान कैसा इसलिए
६-४२
卐糕糕卐
縢糕糕糕糕糕糕糕縢