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अष्ट पाहड
स्वामी विरचित 96
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आचार्य कुन्दकुन्द
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भावार्थ चारित्र निश्चय-व्यवहार के भेद से दो भेद रूप है-(१) व्यवहार चारित्र-महाव्रत, समिति और गुप्ति के भेद से जो कहा है वह व्यवहार है। उन महाव्रतादि में जो प्रव त्ति रूप क्रिया है वह शुभ कर्म रूप बंध करती है और इन क्रियाओं में जितने अंश की निव त्ति है उसका फल बंध नहीं है, उसका फल कर्म की एकदेश निर्जरा है। (२) निश्चय चारित्र-सब क्रियाओं से रहित अपने आत्मस्वरूप रूप होना सो निश्चय चारित्र है जिसका फल कर्म का नाश ही है सो वह पुण्य-पाप के परिहार रूप निर्विकल्प है। पाप का तो त्याग मुनि के है ही और पुण्य का त्याग इस प्रकार है-शुभ क्रिया का फल जो पुण्य कर्म का बंध है उसकी वांछा नहीं है, बंध के नाश के उपाय निर्विकल्प निश्चय चारित्र का प्रधान उद्यम है। इस प्रकार यहाँ निर्विकल्प पुण्य-पाप से रहित ऐसा निश्चय चारित्र कहा है। चौदहवें गुणस्थान के अंत समय में पूर्ण चारित्र होता है उससे लगता ही मोक्ष होता है-ऐसा सिद्धान्त है।।४२।।
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उत्थानिका
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आगे कहते हैं कि "ऐसे रत्नत्रय सहित होकर तप, संयम एवं समिति का पालन करता हुआ शुद्धात्मा का ध्यान करने वाला मुनि निर्वाण को प्राप्त
करता है :जो रयणत्तयजुत्तो कुणइ तवं संजदो ससत्तीए। सो पावइ परमपयं झायंतो अप्पयं सुद्धं ।। ४३।।
जो रत्नत्रय युत संयमी, निज शक्ति से तप को करे। वह परमपद को प्राप्त हो, शुद्धात्मा का ध्यान धर।। ४३।।
अर्थ रत्नत्रय संयुक्त हुआ जो मुनि संयमी होकर अपनी शक्ति के अनुसार तप करता है वह शुद्ध आत्मा का ध्यान करता हुआ परमपद निर्वाण को पाता है।
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