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________________ अष्ट पाहड स्वामी विरचित आचार्य कुन्दकुन्द ..... BOOR ROO P OCE COO Dool •load Doo २. कई सर्वथा शून्य मानते हैं तथा ३. कई और अन्य प्रकार मानते हैं। (५) मीमांसक कर्मकांड मात्र ही तत्त्व मानते है, जीव को अणुमात्र मानते हैं तो भी कुछ परमार्थभूत नित्य वस्तु नहीं है इत्यादि मानते हैं। (६) चार्वाकमती जीव को तत्त्व ही नहीं मानते, पंचभूतों से जीव की उत्पत्ति मानते हैं इत्यादि बुद्धिकल्पित तत्त्व मानकर परस्पर विवाद करते हैं सो युक्त ही है क्योंकि वस्तु का पूर्ण रूप जब दीखता नहीं तब जैसे अंधे हस्ती का विवाद करें वैसे विवाद ही तो होगा और जिनदेव सर्वज्ञ हैं उन्होंने वस्तु का पूर्ण रूप जो देखा है सो ही कहा है वह प्रमाण और नयों से अनेकान्तस्वरूप सिद्ध होता है सो इनकी चर्चा हेतुवाद के जैन के न्याय शास्त्र हैं उनसे जानी जाती है इसलिए यह उपदेश है कि जिनमत में जीव-अजीव का स्वरूप सत्यार्थ कहा है उसको जानना सो सम्यग्ज्ञान है-ऐसा जानकर जिनदेव की आज्ञा मानकर सम्यग्ज्ञान को अंगीकार करना, इसी से सम्यक चारित्र की सिद्धि होती है-ऐसा जानना।।४१।। उत्थानिका 听听器呢呢呢呢呢呢呢呢呢呢呢呢呢呢呢呢 崇崇崇崇崇崇崇崇崇崇藥藥事業事業業助兼勇崇勇 आगे सम्यक् चारित्र का स्वरूप कहते हैं :जं जाणिऊण जोई परिहारं कुणइ पुण्णपावाणं। तं चारित्तं भणियं अवियप्पं कम्मरहिएण।। ४२।। यह जान योगी परिहरे, है पुण्य एवं पाप को। वह निर्विकल्प चारित्र है, यह कर्मरहितों ने कहा।। ४२।। अर्थ योगी-ध्यानी मुनि है सो उस पूर्वोक्त जीव-अजीव के भेद रूप सत्यार्थ सम्यग्ज्ञान को जानकर तथा पुण्य और पाप-इन दोनों का परिहार करता है, त्याग करता है उसे घातिया कर्म रहित सर्वज्ञदेव ने चारित्र कहा है। कैसा है वह-निर्विकल्प है, सर्व प्रव त्ति रूप जो क्रिया के विकल्प उनसे रहित है। 步骤先業%崇明崇崇明藥業| 崇勇兼業助業業助兼崇勇
SR No.009483
Book TitleAstapahud
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaychand Chhabda, Kundalata Jain, Abha Jain
PublisherShailendra Piyushi Jain
Publication Year
Total Pages638
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size151 MB
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