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आचार्य कुन्दकुन्द
* अष्ट पाहुड़
स्वामी विरचित
अर्थ
जो योगी मुनि जिनवर के मत से जीव-अजीव पदार्थ का भेद जानता है वह
सम्यग्ज्ञान है - ऐसा सर्वदर्शी अर्थात् सबको देखने वाले सर्वज्ञदेव ने कहा है और वह ही सत्यार्थ है, अन्य छद्मस्थ का कहा हुआ असत्यार्थ है।
भावार्थ
सर्वज्ञदेव ने जीव, पुद्गल, धर्म, अधर्म, आकाश और काल - ये छह द्रव्य कहे हैं उनमें जीव तो दर्शनज्ञानमयी चेतनास्वरूप कहा है और वह अमूर्तिक-स्पर्श, रस, गंध, वर्ण और शब्द इनसे रहित है और पुद्गल आदि जो पाँच अजीव कहे हैं वे अचेतन हैं-जड़ हैं। उनमें पुद्गल स्पर्श, रस, गंध, वर्ण और शब्द सहित मूर्तिक है और इन्द्रियगोचर है तथा अन्य अमूर्तिक हैं । सो आकाशादि चार तो जैसे हैं वैसे ही तिष्ठते हैं परन्तु जीव- पुद्गल का अनादि से सम्बन्ध है । छद्मस्थ के इंद्रियगोचर जो पुद्गल स्कंध हैं उनको ग्रहण करके जीव राग-द्वेष-मोह रूप परिणमन करता है, शरीरादि को अपना मानता है तथा इष्ट-अनिष्ट मानकर राग-द्वेष रूप होता है जिससे नवीन पुद्गल कर्म रूप होकर बंध को प्राप्त होते हैं-सो इसमें निमित्त-नैमित्तिक भाव है। इस प्रकार यह जीव अज्ञानी होता हुआ जीव- पुद्गल का भेद नहीं जानकर मिथ्याज्ञानी होता है इसलिए आचार्य कहते हैं कि जिनदेव के मत से जीव- अजीव का भेद जानकर सम्यग्ज्ञान का स्वरूप जानना ।
इस प्रकार यह जिनदेव ने कहा सो ही सत्यार्थ है, प्रमाण - नय से ऐसा ही सिद्ध होता है क्योंकि जिनदेव सर्वज्ञ हैं उन्होंने सब वस्तुओं को प्रत्यक्ष देखकर कहा है । अन्यमती छद्मस्थ हैं उन्होंने अपनी बुद्धि में जैसा आया वैसा कल्पना करके कहा है सो प्रमाणसिद्ध नहीं है ।
(१) वे कई वेदान्ती तो एक ब्रह्म मात्र कहते हैं और अन्य कुछ वस्तुभूत नहीं है, मायारूप अवस्तु है - ऐसा मानते हैं । (२) कई नैयायिक - वैशेषिक जीव को सर्वथा नित्य सर्वगत कहते हैं, जीव में और ज्ञानगुण में सर्वथा भेद मानते हैं और अन्य जितने कार्य मात्र हैं उनको ईश्वर करता है ऐसा मानते हैं । (३) कई सांख्यमती पुरुष को उदासीन चैतन्यस्वरूप मानकर सर्वथा अकर्ता मानते हैं, ज्ञान को प्रधान का धर्म मानते हैं। (४) कई बौद्धमती सब वस्तुओं को क्षणिक मानते हैं, सर्वथा अनित्य मानते हैं, उनमें भी मतभेद अनेक हैं - १. कई विज्ञानमात्र तत्त्व मानते हैं,
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