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आचार्य कुन्दकुन्द
* अष्ट पाहुड़
स्वामी विरचित
उत्थानिका
आगे कहते हैं कि 'ऐसे सम्यग्दर्शन को ग्रहण करने का उपदेश सार है और उसको जो मानता है सो ही सम्यक्त्व है' :
इय उवएसं सारं जरमरणहरं खु मण्णए जं तु ।
तं सम्मत्तं भणियं समणाणं सावयाणं पि ।। ४० ।।
जरमरणहर अरु सार इस, उपदेश को जो मानता ।
सम्यक्त्व वह यह है कहा, श्रावक-श्रमण सबके लिए ।। ४० ।।
अर्थ
'इति' अर्थात् ऐसा सम्यग्दर्शन - ज्ञान-चारित्र का जो उपदेश है सो सार है एवं
जरा-मरण को हरने वाला है और इसको जो मानता है - श्रद्धान करता है उसे ही
सम्यक्त्व कहा है सो मुनियों को और श्रावकों को सब ही को ऐसा कहा है कि सम्यक्त्वपूर्वक ज्ञान एवं चारित्र को अंगीकार करो ।
भावार्थ
जीव के जितने भाव हैं उनमें
सम्यग्दर्शन - ज्ञान चारित्र सार हैं, उत्तम हैं तथा जीव के हित हैं और उनमें भी सम्यग्दर्शन प्रधान है क्योंकि इसके बिना ज्ञान
व चारित्र मिथ्या कहलाते हैं इसलिए सम्यग्दर्शन को प्रधान जानकर पहले
अंगीकार करना-यह उपदेश मुनि को तथा श्रावक को सब ही को है ।। ४० ।।
उत्थानिका
आगे सम्यग्ज्ञान का स्वरूप कहते हैं
--
जीवाजीवविहत्ती जोई जाणेइ जिणवरमएण ।
तं सण्णाणं भणियं अवियत्थं सव्वदरसीहिं । । ४१ ।। जिनवर के मत से योगी जाने, भेद जीव-अजीव का।
सज्ज्ञान वह यह सर्वदर्शी, का वचन सत्यार्थ है ।। ४१ ।।
६-३८
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