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अष्ट पाहड
स्वामी विरचित
आचार्य कुन्दकुन्द
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अर्थ जैसे स्फटिक मणि विशुद्ध है-उज्ज्वल है सो परद्रव्य जो पीत, रक्त एवं हरित पुष्पादि से युक्त हुआ अन्य सा दीखता है, पीतादि वर्णमयी दीखता है वैसे जीव है सो विशुद्ध है-स्वच्छ स्वभाव है पर वह राग-द्वेष आदि भावों से युक्त होता हुआ अन्य-अन्य प्रकार हुआ दीखता है-यह प्रकट है।
भावार्थ यहाँ ऐसा जानना कि रागादि विकार पुदगल कर्म के जो भावकर्म उदय में आता है उसका कलुषता रूप परिणाम है सो तो पुद्गल का विकार है और यह जब जीव के ज्ञान में आकर झलकता है तब वह उससे उपयुक्त हुआ ऐसा जानता है कि ये भाव मेरे ही हैं सो जब तक उनका भेदज्ञान नहीं होता तब तक जीव अन्य-अन्य प्रकार रूप से अनुभव में आता है। यहाँ स्फटिक मणि का द ष्टान्त है, उसके अन्य द्रव्य पुष्पादि का डंक लगता है तब वह अन्य सा दीखता है-इस प्रकार जीव के स्वच्छ स्वभाव की विचित्रता जानना ।।५१।।
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इसी कारण आगे कहते हैं कि 'जब तक मुनि के राग का अंश होता है तब तक वह सम्यग्दर्शन को धारण करता हुआ भी ऐसा होता है' :
देव गुरुम्मि य भत्तो साहम्मि य संजदेसु अणुरत्तो। सम्मत्तमुव्वहंतो झाणरओ होदि जोई सो ।। ५२।।
जो देव-गुरु का भक्त है, सहधर्मी मुनि अनुरक्त है। सम्यक्त्व को धरता वह योगी, ध्यान में रत होय है।। ५२ ।।
अर्थ जो योगी-ध्यानी मुनि सम्यक्त्व को धारण किए हुए है वह जब तक यथाख्यात चारित्र को प्राप्त नहीं होता है तब तक वह देव जो अरहंत, सिद्ध और गुरु जो दीक्षा-शिक्षा का देने वाला इनका तो भक्त होता है अर्थात् इनकी भक्ति, वन्दना एवं विनय सहित होता है तथा अन्य जो संयमी मुनि अपने समान धर्म सहित हैं उनमें
६-४८MANANE 業坊崇崇明崇明藥業: 崇崇明藥業業助業