SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 475
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 卐糕卐糕卷 卐業業卐業業卐券 आचार्य कुन्दकुन्द * अष्ट पाहुड़ उत्थानिका पहिले पूछा था कि 'आत्मा का रत्नत्रय कैसा है ?' उसका उत्तर अब आचार्य कहते हैं = जं जाणइ तं णाणं जं पिच्छइ तं च दंसणं णेयं । तं 卐卐糕糕 स्वामी विरचित चारित्तं भणियं परिहारो पुण्णपावाणं ।। ३७ ।। जो जानता वह ज्ञान, जो देखे सो दर्शन जानना । परिहार पुण्य व पाप का जो, उसे चारित है कहा ।। ३७ ।। जो जानता है वह ज्ञान है, जो का परिहार है वह चारित्र है - ऐसा जानना । भावार्थ अर्थ देखता है वह दर्शन है और जो पुण्य और पाप यहाँ जानने वाला, देखने वाला और त्यागने वाला दर्शन, ज्ञान, चारित्र को कहा सोये तो गुणी के गुण हैं ये कर्ता होते नहीं। क्योंकि जानने, देखने और त्यागने की क्रिया का कर्ता आत्मा है इसलिए ये तीनों आत्मा ही हैं, गुण- गुणी में कुछ प्रदेश भेद है नहीं । इस प्रकार जो रत्नत्रय है सो आत्मा ही है - ऐसा जानना ।। ३७ ।। उत्थानिका आगे इस ही अर्थ को अन्य प्रकार से कहते हैं तच्चरुई सम्मत्तं तच्चगहणं च हवइ सण्णाणं । चारित्तं है तत्त्वरुचि सम्यक्त्व, तत्त्व का ग्रहण जो सज्ज्ञान वह । परिहार वह चारित्र है, यह जिनवरेन्द्रों ने कहा ।। ३8 ।। परिहारो पयंपियं जिणवरिंदेहिं ।। ३४ ।। ६-३६ 隱卐卐業業 卐糕糕業業卐卐卐糕
SR No.009483
Book TitleAstapahud
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaychand Chhabda, Kundalata Jain, Abha Jain
PublisherShailendra Piyushi Jain
Publication Year
Total Pages638
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size151 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy