SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 474
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 卐糕糕卐卐業 卐業卐業業業業卐業業 आचार्य कुन्दकुन्द * अष्ट पाहुड़ अर्थ आत्मा जिनवर सर्वज्ञदेव ने ऐसा कहा है- (१) सिद्ध है - किसी से उत्पन्न नहीं हुआ है, स्वयंसिद्ध है, (२) शुद्ध है - कर्ममल से रहित है, (३) सर्वज्ञ है - सब स्वामी विरचित लोकालोक को जानता है (४) सर्वदर्शी है - सब लोक - अलोक को देखता है-ऐसा आत्मा है सो हे मुने ! उस ही को तू केवलज्ञान जान अथवा उस केवलज्ञान ही को आत्मा जान, आत्मा में और ज्ञान में कुछ प्रदेश भेद तो है नहीं और जो गुण-गुणी भेद है वह गौण है। इस आराधना का फल पूर्व में जो केवलज्ञान कहा वही है । । ३५ ।। उत्थानिका आगे कहते हैं कि 'जो योगी जिनदेव के मत से रत्नत्रय की आराधना करता है सो वह आत्मा ही का ध्यान करता है' : रयणत्तयं पि जोइ आराहइ जो हु जिणवरमएण । सो झायदि अप्पाणं परिहरदि परं ण संदेहो ।। ३६ ।। इसका भावार्थ जिनदेव मत से मुनि जो निश्चित, रत्नत्रय आराधता । वह आतमा को ध्यावता, परिहरता पर संदेह ना । । ३६ । । अर्थ जो योगी - ध्यानी मुनि जिनेश्वर देव के मत की आज्ञा से रत्नत्रय अर्थात् सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र की निश्चय से आराधना करता है वह प्रकट रूप से आत्मा ही का ध्यान करता है क्योंकि रत्नत्रय आत्मा का गुण है और गुण-गुणी में भेद नहीं है। जो रत्नत्रय का आराधन है सो आत्मा ही का आराधन है और वह ही परद्रव्य को छोड़ता है इसमें संदेह नहीं है । भावार्थ सुगम है । । ३६ । । 卐卐卐] ६-३५ 隱卐卐業業 業業業業業業業業業業業
SR No.009483
Book TitleAstapahud
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaychand Chhabda, Kundalata Jain, Abha Jain
PublisherShailendra Piyushi Jain
Publication Year
Total Pages638
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size151 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy