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आचार्य कुन्दकुन्द
* अष्ट पाहुड़
लगावे-यह भी ध्यानतुल्य है क्योंकि शास्त्र में परमात्मा के स्वरूप
है सो यह ध्यान ही का अंग है ।। ३३ ।।
उत्थानिका
स्वामी विरचित
का निर्णय
आगे कहते हैं कि 'जो रत्नत्रय की आराधना करता है वह जीव आराधक ही है' :
रयणत्तयमाराहं
जीवो आराहओ मुव्वो ।
आराहणा विहाणं तस्स फलं केवलं गाणं ।। ३४ । ।
जानो आराधक जीव उसको, रत्नत्रय आराधे जो ।
आराधना का विधान जो, फल उसका केवलज्ञान है ।। ३४ ।।
अर्थ
रत्नत्रय जो सम्यग्दर्शन-ज्ञान- चारित्र उसकी आराधना करता हुआ जो जीव है उसको आराधक जानना और आराधना का जो विधान है उसका फल केवलज्ञान है
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भावार्थ
जो सम्यग्दर्शन-ज्ञान - चारित्र की आराधना करता है वह केवलज्ञान को पाता है - यह जिनागम में प्रसिद्ध है । ३४ ।।
उत्थानिका
आगे कहते हैं कि 'जो शुद्ध आत्मा है वह केवलज्ञान है और जो केवलज्ञान है
वह शुद्धात्मा है' :
सिद्धो सुद्धो आदा सव्वण्हू सव्वलोयदरसी य।
सो जिणवरेहिं भणियो जाण तुमं केवलं गाणं ।। ३५ । ।
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सब लोकदर्शी आतमा, सर्वज्ञ, सिद्ध व शुद्ध जो ।
जानो उसे तुम ज्ञान केवल, जिनवरों ने यह कहा ।। ३५ ।।
६-३४
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