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अष्ट पाहड
स्वामी विरचित
आचार्य कुन्दकुन्द
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लोकव्यवहार और धर्मव्यवहार सबको ही छोड़ने पर ध्यान होता है तथा जिस प्रकार से जिनदेव ने कहा उस प्रकार से परमात्मा का ध्यान करना कहा सो अन्यमती परमात्मा का स्वरूप अनेक प्रकार से अन्यथा कहते हैं और उसके ध्यान का भी अन्यथा उपदेश करते हैं उसका निषेध है। जिनदेव ने परमात्मा का तथा ध्यान का जो स्वरूप कहा सो सत्यार्थ है, प्रमाणभूत है वैसा ही जो योगीश्वर करते हैं वे ही निर्वाण को पाते हैं।।३२।।
添添添馬养業樂業兼崇明崇勇攀事業兼藥業樂業
आगे जिनदेव ने जैसी ध्यान-अध्ययन की प्रव त्ति कही है वैसा उपदेश करते हैं :
पंचमहव्वयजुत्तो पंचसमिदीसु तीसु गुत्तीसु । रयणत्तयसंजुत्तो झाणज्झयणं सया कुणह।। ३३।। तू पाँच महाव्रत, पंच समिति, तीन गुप्ति से युक्त हो। औ रत्नत्रय संयुक्त हो कर, ध्यान-अध्ययन सर्वदा ।। ३३।।
崇先养养樂業先崇崇崇明兼帶禁藥勇禁藥事業業帶男崇勇
अर्थ
आचार्य कहते हैं कि (१) पांच महाव्रतों से युक्त होकर, (२) पांच समिति व तीन गुप्ति इनसे युक्त होकर तथा (३) सम्यग्दर्शन ज्ञान-चारित्र जो रत्नत्रय उससे संयुक्त होकर हे मुनिजनों। तुम ध्यान और अध्ययन अर्थात् शास्त्र का अभ्यास उसको करो।
भावार्थ अहिंसा, सत्य, अचौर्य, ब्रह्मचर्य और परिग्रहत्याग-ये तो पांच महाव्रत, ईर्या, भाषा, एषणा, आदाननिक्षेपण और प्रतिष्ठापना-ये पांच समिति और मन-वचन काय के निग्रह रूप तीन गुप्ति-ये तेरह प्रकार का चारित्र जिनदेव ने कहा है उससे युक्त होकर और निश्चय-व्यवहार रूप रत्नत्रय जो सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र कहा है उससे युक्त होकर ध्यान और अध्ययन करने का उपदेश है। उनमें प्रधान तो ध्यान है ही और उसमें यदि मन न रुके तो शास्त्र के अभ्यास में उसे
兼業助業崇明藥業業、崇崇崇崇崇崇明