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________________ *業業業業業業業業業業業業業業業業 आचार्य कुन्दकुन्द * अष्ट पाहुड़ जो योगी - ध्यानी मुनि व्यवहार में है तथा जो व्यवहार में जागता है स्वामी विरचित अर्थ सोता है वह अपने स्वरूप के कार्य में जागता वह अपने आत्मकार्य में सोता है। भावार्थ मुनि के सांसारिक व्यवहार तो कुछ है नहीं और यदि हो तो वह मुनि कैसा ! वह तो पारवंडी है तथा धर्म का व्यवहार जो संघ में रहना और महाव्रतादि पालना - ऐसे व्यवहार में भी जो तत्पर नहीं है, सर्व प्रव त्तियों की निव त्ति करके ध्यान करता है वह व्यवहार में सोता हुआ कहलाता है और अपने आत्मस्वरूप में लीन हुआ देखता जानता है सो अपने आत्मकार्य में जागता है तथा जो इस व्यवहार ही में तत्पर है, सावधान है और जिसे स्वरूप की दष्टि नहीं है वह व्यवहार में जागता हुआ कहलाता है, ऐसा मुनि आत्मकार्य में सोता है ऐसा कहा जाता है ।। ३१ ।। उत्थानिका आगे यह कहते हैं कि 'योगी पूर्वोक्त कथन को जानकर व्यवहार को छोड़कर आत्मकार्य करता है' : इय जाणिऊण जोई ववहारं चयइ सव्वहा सव्वं । झायइ परमप्पाणं जह भणियं जिणवरिंदे ।। ३२ ।। यह जान योगी सर्वथा, व्यवहार सब ही छोड़कर । परमात्म ध्यावे वैसे जैसा, जिनवरेन्द्रों ने कहा ।। ३२ ।। अर्थ इस प्रकार पूर्वोक्त कथन को जानकर जो योगी - ध्यानी मुनि है वह सर्व ही व्यवहार को सब प्रकार से छोड़ता है और परमात्मा का ध्यान करता है । कैसे ध्यान 卐卐卐] 米糕糕業卐米米米米米糕 करता है - जैसे जिनवरेन्द्र तीर्थंकर सर्वज्ञदेव ने कहा है वैसे ध्यान करता है। भावार्थ सर्वथा सर्व व्यवहार का जो छोड़ना कहा उसका तो आशय यह है कि ६-३२ 卐糕糕卐業卐
SR No.009483
Book TitleAstapahud
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaychand Chhabda, Kundalata Jain, Abha Jain
PublisherShailendra Piyushi Jain
Publication Year
Total Pages638
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size151 MB
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