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अष्ट पाहुड
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वामी विरचित
. आचाय कुन्दकुन्द
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उत्थानिका
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आगे कहते हैं कि 'इस प्रकार ध्यान करते हुए मुनि सब कर्मों के आस्रव का
निरोध करके संचित कर्मों का नाश करता है :सव्वासवणिरोहेण कम्म खवदि संचिदं। जोयत्थो जाणए जोई जिणदेवेण भासियं ।। ३०।।
आस्रव समस्त निरोध, कर क्षय, पूर्व संचित कर्म का। योगस्थ योगी जाने सब, जिनदेव ने भाषा है यह।। ३० ।।
अर्थ योग-ध्यान में स्थित हुआ योगी मुनि है सो सब कर्मों के आस्रव का निरोध करके संवरयुक्त हुआ पूर्व में बांधे हुए जो कर्म संचयरूप हैं उनका क्षय करता है-ऐसा जिनदेव ने कहा है सो जानो।
भावार्थ ध्यान से कर्मों का आस्रव रूकता है, इससे आगामी बंध होता नहीं और पूर्व में संचित कर्मों की निर्जरा होती है तब केवलज्ञान उत्पन्न होकर मोक्ष प्राप्त होता है-यह आत्मा के ध्यान का माहात्म्य है।।३०।।
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आगे कहते हैं कि 'जो व्यवहार में तत्पर है उसके यह ध्यान नहीं होता' :
जो सुत्तो ववहारे सो जोई जग्गए सकज्जम्मि। जो जग्गदि ववहारे सो सुत्तो अप्पणे कज्जे ।। ३१।। व्यवहार सुप्त है योगी जो, वह जागता निज कार्य में। जाग त है जो व्यवहार में, वह सुप्त आतम कार्य में।। ३१।।
६.३१
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