SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 469
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ अष्ट पाहड स्वामी विरचित आचार्य कुन्दकुन्द DOG Dog/ Dool elect SRO धारण किए हुए हों तो उनके निषेध के लिए ऐसा कहा है कि मिथ्यात्व और अज्ञान को छोड़कर आत्मा का स्वरूप यथार्थ जानकर जिसने श्रद्धान नहीं किया उसके मिथ्यात्व व अज्ञान तो लगा रहा तब ध्यान किसका हो तथा पुण्य-पाप दोनों बंधस्वरूप हैं इनमें प्रीति-अप्रीति जब तक रहे तब तक मोक्ष का स्वरूप जाना ही नहीं तब ध्यान किसका हो तथा यदि मन-वचन-काय की प्रव त्ति छोड़कर मौन न करे तो एकाग्रता कैसे हो इसलिए मिथ्यात्व, अज्ञान, पुण्य-पाप एवं मन-वचन-काय की प्रव त्ति छोड़ना ध्यान में युक्त कहा है-इस प्रकार आत्मा का ध्यान करने से मोक्ष होता है।।२8 ।। उत्थानिका S 添添添添添馬樂樂男崇崇崇勇樂樂事業禁勇攀牙樂事業 आगे ध्यान करने वाला मौन धारण करके स्थित होता है सो क्या विचार करके वह स्थित होता है सो कहते हैं :जं मया दिस्सदे रूवं तं ण जाणादि सव्वहा। जाणगं दिस्सदे णं तं तम्हा जंपेमि केणहं ।। २७।। दिखता जो मुझको रूप वह, नहिं जानता कुछ सर्वथा। ज्ञायक जो मैं नहिं द श्यमान, अतः मैं बोलूं किससे रे।।७।। अर्थ जिस रूप को मैं देखता हूँ वह रूप तो मूर्तिक वस्तु है, जड़ है, अचेतन है, सब प्रकार से कुछ भी जानता नहीं है और मैं ज्ञायक हूँ सो अमूर्तिक हूँ, यह जड़ रूपी मुझे देखता नहीं है इसलिए मैं किससे बोलूं। भावार्थ यदि दूसरा कोई अपने से बात करने वाला हो तब तो परस्पर में बोलना संभव | है सो आत्मा तो अमूर्तिक है, उसके वचन का बोलना नहीं है और जो रूपी पुद्गल है सो अचेतन है वह कुछ जानता व देखता नहीं है इसलिए ध्यान करने वाला कहता है कि 'मैं किससे बोलूं अतः मेरे मौन है' ।।२७।। 崇明業巩巩巩巩巩巩巩業凱馨听听听听听听听業货業 業坊業業業樂業 | 崇明崇明藥崇明藥業業
SR No.009483
Book TitleAstapahud
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaychand Chhabda, Kundalata Jain, Abha Jain
PublisherShailendra Piyushi Jain
Publication Year
Total Pages638
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size151 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy