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________________ अष्ट पाहुड state स्वामी विरचित आचाय कुन्दकुन्द Dog/ Bloot E Sille उसका समाधान ऐसा है कि 'ये सब कषायों में गर्भित हैं तो भी विशेष रूप से बोध कराने को भिन्न कहे हैं। वहाँ कषाय की प्रव त्ति तो ऐसे है-(१) जो अपने को अनिष्ट हो उससे क्रोध करे, दूसरे को नीचा मानकर मान करे, किसी कार्य के लिए कपट करे और आहारादि में लोभ करे, (२) ये गारव हैं सो रस, ऋद्धि एवं सात-ऐसे तीन प्रकार के हैं सो यद्यपि ये मान कषाय में गर्भित हैं तो भी प्रमाद की बहुलता इनमें हैं इसलिए भिन्न कहे हैं तथा (३) मद जाति, लाभ, कुल, रूप, तप, बल, विद्या और ऐश्वर्य-इनका होता है सो न करे तथा (४) राग-द्वेष प्रीति-अप्रीति को कहते हैं। किसी से प्रीति करना तथा किसी से अप्रीति करना-इस प्रकार लक्षण के विशेष से भेद करके कहा तथा (५) मोह नाम पर से ममत्व भाव का है सो संसार का मोह तो मुनि के है ही नहीं परन्तु धर्मराग से शिष्य आदि में ममत्व का व्यवहार है सो ये भी छोड़े-इस प्रकार भेद विवक्षा से भिन्न कहे हैं। ये ध्यान के घातक भाव हैं, इनको छोड़े बिना ध्यान होता नहीं है इसलिए जैसे ध्यान हो वैसा करे' ।।२७।। 添添添添添樂業%崇勇兼崇勇樂樂馬樂樂業事業事業 उत्थानिका 崇崇崇崇崇崇崇崇崇崇藥藥事業事業業助兼勇崇勇 आगे इसी को फिर विशेष रूप से कहते हैं :मिच्छत्तं अण्णाणं पावं पुण्णं चएइ तिविहेण । मोणव्वएण जोई जोयत्थो जोयए अप्पा।। २8 ।। तज के मिथ्यात्व, अज्ञान, पाप व पुण्य त्रिविध प्रकार से। योगस्थ योगी मौन व्रत के. द्वारा आतम ध्यावता ।। २8 ।। अर्थ योगी-ध्यानी मुनि है सो मिथ्यात्व, अज्ञान, पाप और पुण्य इनको मन-वचन-काय से छोड़कर मौनव्रत के द्वारा ध्यान में स्थित हो आत्मा को ध्याता है। भावार्थ कई अन्यमती योगी-ध्यानी कहलाते हैं तथा जैनलिंगी भी यदि कोई द्रव्यलिंग 泰拳崇明崇崇崇明驚爆兼崇崇明崇崇崇明
SR No.009483
Book TitleAstapahud
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaychand Chhabda, Kundalata Jain, Abha Jain
PublisherShailendra Piyushi Jain
Publication Year
Total Pages638
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size151 MB
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