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आचार्य कुन्दकुन्द
* अष्ट पाहुड़
निर्वाण न हो तब तक व्रत-तप आदि शुभ में प्रवर्तना श्रेष्ठ है, इससे सांसारिक
सुख की प्राप्ति है और निर्वाण के साधने में भी ये सहकारी हैं तथा विषय कषायों की प्रवत्ति का तो फल केवल नरकादि के दुःख हैं सो उन दुःखों के कारणों का सेवन करना यह तो बड़ी भूल है-ऐसा जानना' ।। २५ ।।
उत्थानिका
स्वामी विरचित
आगे कहते हैं कि 'जब तक संसार में रहे तब तक व्रत-तप पालना श्रेष्ठ कहा परन्तु जो संसार से निकलना चाहता है वह आत्मा का ध्यान करे' :जो इच्छइ णिस्सरिदुं संसारमहण्णवस्स रुंद्दस्स ।
कम्मिंधणाण डहणं सो झायइ अप्पयं सुद्धं ।। २६ । ।
जो चाहता है निकलना, संसार महार्णव रुद्र से ।
वह कर्म ईंधन के दहन, हित ध्यावता शुद्धातमा ।। २६ ।।
अर्थ
जो जीव 'रुद्र' अर्थात् बड़ा विस्तार रूप जो संसार रूपी समुद्र उससे निकलना चाहता है वह जीव कर्म रूपी ईंधन का दहन करने वाला जो शुद्ध आत्मा उसको ध्याता है।
भ
टि0- 1. 'आचार्यकल्प पं0 टोडरमल जी' ने भी महान ग्रंथ 'मोक्षमार्ग प्रकाDIक' में 'निचयाभासी मिथ्यादष्टि' के प्रकरण में ऐसा ही लिखा है- द्धोपयोग न हो तो अशुभ से छूटकर में प्रवर्तन करना युक्त है, शुभ को छोड़कर अशुभ में प्रवर्तन करना युक्त नहीं है क्योंकि भ व अशुभ का परस्पर में विचार करो तो शुभ भावों में कषाय मंद होती है इसलिए बंध
हीन होता है, अशुभ भावों में कषाय तीव्र होती है इसलिए बंध बहुत होता है - ऐसे विचार
करने पर सिद्धांत में अशुभ की अपेक्षा भ को भला भी कहते हैं। ऐसे यह बात सिद्ध हुई शुभ कार्य का निषेध ही है और जहाँ
भयो
अंगीकार करना युक्त है।'
६-२७
कि जहाँ [गुद्धोपयोग होता जाने वहाँ तो होता वहाँको उपाय करके
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