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________________ 卐糕糕卐業卐業卐業業業業業 आचार्य कुन्दकुन्द * अष्ट पाहुड़ स्वामी विरचित अर्थ जैसे सुवर्ण पाषाण है वह सोधने की सामग्री के सम्बन्ध से शुद्ध सुवर्ण हो जाता है वैसे ही काल आदि लब्धि अर्थात् द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव रूप सामग्री की प्राप्ति से यह आत्मा जो कर्म के संयोग से अशुद्ध है वह ही शुद्ध परमात्मा हो जाता है। भावार्थ इसका भावार्थ सुगम है ।। २४ ।। उत्थानिका आगे कहते हैं कि 'संसार में व्रत-तप से स्वर्ग होता है अतः व्रत-तप भला परन्तु अव्रतादि से नरकादि गति होती है सो अव्रतादि श्रेष्ठ नहीं है' : वर वयतवेहिं सग्गो मा दुक्खं होउ णिरए इयरेहिं । छायातपट्टिया पडवालंताण गुरुभेयं ।। २५ ।। वर व्रत-तपों से स्वर्ग, इतर से नरक दुःख न हों कभी । छायातपस्थित के प्रतीक्षा करने में अन्तर बहुत ।। २५ । । अर्थ व्रत और तप से स्वर्ग होता है वह श्रेष्ठ है तथा दूसरे जो अव्रत और अतप उनसे प्राणी को नरकगति में दुःख होता है सो मत होओ अर्थात् वह श्रेष्ठ नहीं है । छाया और धूप में बैठने वाले के जो प्रतिपालक कारण हैं उनमें बड़ा भेद है । भावार्थ जैसे छाया का कारण तो व क्षादि हैं उनकी छाया में जो बैठता है वह सुख पाता है और आताप का कारण सूर्य एवं अग्नि आदि हैं इनके निमित्त से आताप होता है इनमें जो बैठता है वह दुःख पाता है - इस प्रकार इनमें बड़ा भेद है वैसे जो व्रत-तप का आचरण करता है वह स्वर्ग का सुख पाता है और जो इनका आचरण नहीं करता है, विषय-कषायादि का सेवन करता है वह नरक के दुःख पाता है-इस प्रकार इनमें बड़ा भेद है। इससे यहाँ कहने का यह आशय है कि जब तक ६-२६ 卐卐卐] 黹糕糕糕糕糕糕懟懟懟 卐糕糕卐業卐
SR No.009483
Book TitleAstapahud
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaychand Chhabda, Kundalata Jain, Abha Jain
PublisherShailendra Piyushi Jain
Publication Year
Total Pages638
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size151 MB
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