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आचार्य कुन्दकुन्द
* अष्ट पाहुड़
स्वामी विरचित
उत्थानिका
आगे शिष्य पूछता है कि 'परद्रव्य कैसा है और स्वद्रव्य कैसा है ?' इसका उत्तर आचार्य कहते हैं
:–
आदसहावादण्णं सच्चित्ताचित्तमिस्सियं हवदि ।
तं परदव्वं भणियं अविदत्थं सव्वदरसीहिं ।। १७।। चेतन-अचेतन - मिश्र जो हैं भिन्न आत्मस्वभाव से I
सत्यार्थ यह परद्रव्य वे, सब सर्वदर्शी ने कहा ।। १७ ।।
अर्थ
आत्मस्वभाव से अन्य जो कुछ सचित्त तो स्त्री-पुत्रादि जीव सहित वस्तु, अचित्त धन-धान्य, हिरण्य-सुवर्णादि अचेतन वस्तु तथा मिश्र - आभूषणादि सहित मनुष्य और कुटुम्ब सहित ग हादि- ये सब परद्रव्य हैं इस प्रकार जिसने जीवाजीवादि पदार्थों का स्वरूप नहीं जाना उसको समझाने के लिए सर्वदर्शी सर्वज्ञ भगवान ने कहा है अथवा 'अविदत्थं' अर्थात् सत्यार्थ कहा है।
भावार्थ
अपनी ज्ञानस्वरूप आत्मा के सिवाय अन्य जो चेतन, अचेतन और मिश्र वस्तु हैं वे सब ही परद्रव्य हैं-इस प्रकार अज्ञानी को ज्ञान कराने के लिए सर्वज्ञदेव ने कहा है । ।१७ । ।
उत्थानिका
आगे कहते हैं कि 'जिस आत्मस्वभाव को स्वद्रव्य कहा वह ऐसा है' :
दुट्ठट्ठकम्मरहियं अणोवमं णाणविग्गहं णिच्चं ।
सुद्धं जिणेहिं कहियं अप्पाणं हवदि सद्दव्वं ।। १8 । । दुष्टाष्टकर्मविहीन अनुपम, ज्ञानविग्रह नित्य जो ।
जिनदेव उस शुद्ध आत्मा को ही कहें स्वद्रव्य है ।। १8 ।।
६-२१
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