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________________ 專業卐卐業卐卐業卐業卐業業 आचार्य कुन्दकुन्द * अष्ट पाहुड़ स्वामी विरचित अर्थ आत्मा को जिनभगवान सर्वज्ञदेव ने १. दुष्ट जो संसार के दुःख देने वाले ज्ञानावरणादि आठ कर्म उनसे रहित, २. जिसको किसी की उपमा नहीं है ऐसा अनुपम, ३. ज्ञान ही है विग्रह अर्थात् शरीर जिसके ऐसा, ४. नित्य अर्थात् जिसका नाश नहीं ऐसा अविनाशी और ५. शुद्ध अर्थात् अविकार रहित केवलज्ञानमयी कहा है, वह स्वद्रव्य है । भावार्थ ज्ञानानंदमयी, अमूर्तिक एवं ज्ञानमूर्ति जो अपनी आत्मा है वह ही एक स्वद्रव्य है, अन्य सब चेतन, अचेतन और मिश्र परद्रव्य हैं ।। १8 ।। उत्थानिका आगे कहते हैं कि 'जो ऐसे निजद्रव्य का ध्यान करते हैं वे निर्वाण पाते हैं' जे झायंति सदव्वं परदव्वपरम्मुहा हु सुचरिता । ते जिणवराण मग्गं अणुलग्गा लहंति णिव्वाणं ।। ११ । । होकर विमुख परद्रव्य से निज ध्या चरित से युक्त हो । वे जिनवरों के मार्ग में, अनुलग्न शिव प्राप्ति करें ।। ११ ।। अर्थ जो मुनि परद्रव्य से पराङ्मुख होते हुए स्वद्रव्य जो निज आत्मद्रव्य उसका ध्यान करते हैं वे प्रकट 'सुचरित्रा' अर्थात् निर्दोष चारित्रयुक्त हुए जिनवर तीर्थंकरों के मार्ग में अनुलग्न हुए अर्थात् उसमें लगते हुए निर्वाण को पाते हैं। 卐卐 भावार्थ स्वरूप का ध्यान करते हैं वे जिनमार्ग में परद्रव्य का त्याग करके जो अपने लगे हुए मुनि निश्चय चारित्र रूप होकर मोक्ष पाते है 1 ।।99।। टि(0- 1. यहाँ निचय-व्यवहार की सुन्दर मैत्र कही गई है। परद्रव्य का त्याग सो तो व्यवहार और अपने स्वरूप को ध्याना सो निचय। व्यवहार निचय का साधनस्वरूप होता है, इसके बिना निचय की प्राप्ति नहीं होती और निचय प्रधान होता है, इसके बिना व्यवहार संसारस्वरूप ही होता है। ६-२२ 蛋糕糕業業卐業 卐糕糕卐
SR No.009483
Book TitleAstapahud
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaychand Chhabda, Kundalata Jain, Abha Jain
PublisherShailendra Piyushi Jain
Publication Year
Total Pages638
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size151 MB
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