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________________ 華卐卐糕卐業業卐卐業卐業卐業卐業卐卐 आचार्य कुन्दकुन्द * अष्ट पाहुड़ स्वामी विरचित उत्थानिका आगे संक्षेप से कहते हैं कि 'परद्रव्य ही से दुर्गति होती है और स्वद्रव्य ही से सुगति होती है' : परदव्वादो दुगई सद्दव्वादो हु सुग्गई हवई । इय णाऊण सदव्वे कुणह रई विरइइयरम्मि ।। १६ ।। परद्रव्य से हो दुर्गति, स्वद्रव्य से होती सुगति । यह जान निज में करो रति, परद्रव्य से करो रे ! विरति ।। १६ ।। अर्थ परद्रव्य से तो दुर्गति होती है तथा स्वद्रव्य से सुगति होती है यह प्रकट जानो इसलिए हे भव्य जीवों ! तुम ऐसा जानकर स्वद्रव्य में रति करो और अन्य जो परद्रव्य उनसे विरति करो। भावार्थ लोक में भी यह रीति है कि जो अपने द्रव्य से रति करके अपना ही भोगता है वह सुख पाता है और उस पर कोई आपत्ति नहीं आती है तथा जो पर के द्रव्य से प्रीति करके उसे जैसे-तैसे लेकर भोगता है उसे दुःख होता है और उस पर आपत्ति आती है इसलिए आचार्य ने संक्षेप में उपदेश दिया है कि 'अपने आत्मस्वभाव में तो रति करो इससे सुगति है, स्वर्गादि भी इसी से होते हैं और मोक्ष भी इसी से होता है तथा परद्रव्य से प्रीति मत करो, परद्रव्य की प्रीति से दुर्गति होती है तथा संसार में भ्रमण होता है।' यहाँ कोई कहता है कि 'स्वद्रव्य में लीन होने से मोक्ष होता है और सुगति-दुर्ग तो परद्रव्य ही की प्रीति-अप्रीति से होती है ?' उसे कहते हैं कि ‘यह सत्य है परन्तु यहाँ इस आशय से कहा है कि जब परद्रव्य से विरक्त होकर स्वद्रव्य में लीन हो तब विशुद्धता बहुत होती है तथा उस विशुद्धता के निमित्त से शुभ कर्म भी बंधते हैं और जब अत्यन्त विशुद्धता हो तब कर्मों की निर्जरा होकर मोक्ष होता है इसलिए सुगति-दुर्गति का होना जैसा कहा है वैसा युक्त है - ऐसा जानना' ।। १६ ।। ६-२० 【專業業 * 縢縢糕糕糕糕≡ ≡糕糕糕黹糕 卐糕糕卐
SR No.009483
Book TitleAstapahud
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaychand Chhabda, Kundalata Jain, Abha Jain
PublisherShailendra Piyushi Jain
Publication Year
Total Pages638
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size151 MB
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