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________________ 業業業業業業業 糝業業業 आचार्य कुन्दकुन्द अर्थ जो मुनि स्वद्रव्य जो अपनी आत्मा उसमें रत है अर्थात् रुचि सहित है वह नियम * अष्ट पाहुड़ से सम्यग्दष्टि है तथा वह ही सम्यक्त्व भाव रूप परिणमित हुआ दुष्ट जो आठ कर्म उनका क्षपण करता है-नाश करता है। भावार्थ यह भी कर्म के नाश करने के कारण का संक्षिप्त कथन है । जो अपने स्वरूप है । । १४ । । की श्रद्धा, रूचि, प्रतीति एवं आचरण से युक्त है वह नियम से सम्यग्द ष्टि है। इस स्वामी विरचित सम्यक्त्व भाव रूप से परिणमित मुनि आठ कर्मों का नाश करके निर्वाण पाता २ उत्थानिका आगे कहते हैं कि 'जो परद्रव्य में रत है वह मिथ्याद ष्टि हुआ कर्मों को बाँधता है ' : बाह्य जो पुण परदव्वरओ मिच्छादिट्टी हवेइ सो साहू । मिच्छत्तपरिणदो पुण बज्झदि दुट्ठट्ठकम्मेहिं ।। १५ ।। अर्थ 'पुनः' अर्थात् फिर जो साधु परद्रव्य में रत है- रागी है वह मिथ्याद ष्टि होता है पुनः साधु जो परद्रव्यरत, वह मिथ्याद ष्टि होय है । मिथ्यात्व से परिणमित वह, बंधता करम दुष्टाष्ट से ।। १५ ।। तथा वह मिथ्यात्व भाव रूप परिणमित हुआ दुष्ट जो आठ कर्म उनसे बंधता है 1 । भावार्थ यह बंध के कारण का संक्षेप है। यहाँ साधु कहने से ऐसा बताया है कि कोई परिग्रह छोड़कर निर्ग्रन्थ हो साधु कहलाता हो तो भी यदि उसे परद्रव्य से 【業 परमाणु मात्र—अंश मात्र भी राग हो तो वह मिथ्याद ष्टि होता हुआ दुष्ट जो संसार के देने वाले आठ कर्म उनसे बंधता है ।। १५ ।। टि0-1. 'श्रु0 टी0'-'परद्रव्यरत मिथ्यादष्टि साधु जिनलिंगोपजीवी है अर्थात् वह जिनलिंग धारण कर मात्र आजीविका करता है ।' ।।15।। ६-१६ 卐糕糕糕 灬糕糕糕糕糕糕業業
SR No.009483
Book TitleAstapahud
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaychand Chhabda, Kundalata Jain, Abha Jain
PublisherShailendra Piyushi Jain
Publication Year
Total Pages638
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size151 MB
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