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अष्ट ।
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स्वामी विरचित
आचार्य कुन्दकुन्द
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हुआ फिर भी आगामी जन्म में भी इस अंग का अर्थात् देह का आदर करता है, इसको भला मानकर चाहता है।
भावार्थ मोह कर्म की प्रकृति जो मिथ्यात्व उसके उदय से ज्ञान भी मिथ्या होता है, परद्रव्य को अपना जानता है तथा उस मिथ्यात्व ही से मिथ्या श्रद्धान होता है जिससे परद्रव्य में निरन्तर यह भावना होती है कि 'यह मुझे सदा प्राप्त हो' और उससे यह प्राणी आगामी भी देह को भला जानकर चाहता है।।११।।
उत्थानिका
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आगे कहते हैं कि 'जो मुनि देह में ममत्व नहीं करता वह निर्वाण को पाता है :
जो देहे णिरवेक्खो णिबंदो णिम्ममो णिरारंभो। आदसहावे सुरओ जोई सो लहइ णिव्वाणं ।। १२ ।।
है देह में निरपेक्ष, निर्मम, निरारम्भी योगी जो। निर्द्वन्द्व आत्मस्वभाव में रत, मुक्ति की प्राप्ति करे।। १२ ।।
अर्थ जो योगी-ध्यानी मुनि (१) देह में निरपेक्ष है-देह को नहीं चाहता है अर्थात उदासीन है, (२) निर्द्वन्द्व है-रागद्वेष रूप इष्ट-अनिष्ट मान्यता से रहित है, (३) निर्ममत्व है-देहादि में 'ये मेरे हैं' ऐसी बुद्धि से रहित है, (४) निरारंभ है-इस देह के लिए तथा अन्य लौकिक प्रयोजन के लिए आरम्भ से रहित है तथा (५) आत्मस्वभाव में रत है-लीन है अर्थात् निरन्तर स्वभाव की भावना सहित है वह निर्वाण को पाता है।
भावार्थ जो बहिरात्मा के भाव को छोड़कर अन्तरात्मा होकर परमात्मा में लीन होता है वह मोक्ष पाता है-यह उपदेश दिया है।।१२।।
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