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पाहुड़
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स्वामी विरचित
आचार्य कुन्दकुन्द
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कर स्व-पर निश्चय तन में वस्तुस्वरूप को नहीं जानकर। सुत-दारा विषयक मोह बाढ़े, याही विधि इस मनुज के।। १० ।।
अर्थ इस प्रकार देह में जो स्व–पर का 'अध्यवसाय' अर्थात् निश्चय उसके द्वारा मनुष्यों के सुत-दारादि बाह्य जीवों में मोह प्रवर्तता है। कैसे हैं मनुष्य-अविदित अर्थात् नहीं जाना है अर्थ अर्थात् पदार्थ की आत्मा अर्थात् स्वरूप जिन्होंने।
भावार्थ जिन मनुष्यों ने जीव-अजीव पदार्थ का स्वरूप यथार्थ नहीं जाना उन्हें देह में स्व–पर अध्यवसाय है अर्थात् अपनी देह को वे अपनी आत्मा जानते हैं और पर की देह को पर की आत्मा जानते हैं, उनके पुत्र-स्त्री आदि कुटुम्ब में मोह-ममत्व होता है और जब जीव-अजीव का स्वरूप जानते हैं तब देह को अजीव जानते हैं और आत्मा को अमूर्तिक चेतन जानते हैं, अपनी आत्मा को तो अपनी मानते हैं और पर की आत्मा को पर जानते हैं तब पर में ममत्व नहीं होता इसलिए जीव-अजीव आदि पदार्थ का स्वरूप भली प्रकार जानकर मोह नहीं करना-ऐसा बताया है।।१०।।
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उत्थानिका
आगे कहते हैं कि 'मोह कर्म के उदय से मिथ्याज्ञान और मिथ्याभाव होते हैं
जिससे आगामी भव में भी यह मनुष्य देह को चाहता है' :मिच्छाणाणेसु रओ मिच्छाभावेण भाविओ संतो। मोहोदएण पुणरवि अंगं सम्मण्णए मणुओ।। ११।।।
हो लीन मिथ्याज्ञान, मिथ्याभावों से भाया हुआ। मोहोदय से पुनः देह को, सम्मान देता यह मनुज ।। ११ ।।
अर्थ यह मनुष्य है सो मोह कर्म के उदय से मिथ्याज्ञान के द्वारा मिथ्याभावों से भाया 崇崇明崇崇崇明崇際 崇明崇明崇崇明崇明業